दश धर्मों में उत्तम शब्द का प्रयोग का अर्थ यही हो सकता है जिस आत्मा को रत्नत्रय की प्राप्ति हो, उसी के अन्दर उत्तम क्षमा का उद्भव होता है। क्रोध की सत्ता होते हुए उदीरित नहीं हो पाता है क्योंकि भाव हमेशा गलती करने पर भी क्षमा धर्म में होता है। समस्या, क्रोध से नहीं क्षमा से सुलझा देते हैं। इनकी चर्या में कठोरता परिलक्षित होती है, भावों में श्रीफल के गोले जैसी मृदुता यही इनका मार्दव धर्म है। आर्जव का मर्म उनकी चर्या, उनका भाव उनका ध्यान हमेशा आर्त-रौद्र भावों से परहेज करता रहता है। यही सीधापन विद्याधर के जीवन में था। इसलिए ऋजुता का मार्ग ऊर्ध्वगमन का मार्ग श्रेणिक प्राप्त करने का मार्ग रत्नत्रय धर्म होता है जो आत्मगत होता है। बाहर चर्यामय होता है वह अस्नानव्रत का पालक होता है, उसे शरीर शुद्धि से प्रयोजन नहीं होता और श्रावक बिना शरीर शुद्धि के दान देने की पात्रता नहीं रखता। वाणी में सत, काया से विनय यही इनका सत्यधर्म है। प्राणी मात्र की रक्षा, ईर्या समिति से चलना यही संयम की यात्रा का सोपान देखने मिलता है। बिना तप के ध्यान, साधना फलीभूत नहीं होती। तप का उल्टा भी पतन होता है। इसलिए पतन को नहीं और जतन से तपन की अग्नि को अपने अन्दर प्रवेश कराकर निर्ममत्वपने के अनुभव में जीते हैं। त्याग तो पग-पग पर चलता ही रहता है। आकिंचन्य भाव, परिग्रह के प्रति अनासक्ति का भाव यह जीवन का जीवित अंश है। ब्रह्मचर्य शील ये तो गुरु देव के आभूषण हैं, इसलिए सारा संघ बाल ब्रह्मचारी है। ऐसे शुद्ध लोहे का निर्माण कर रहे हैं। कभी भी पारसमणि के सम्पर्क में आने पर पारस अवश्य बनेंगे। ५० वर्षों की साधना का यही प्रतिफल है।