दीपक प्रकाश देता है, मशाल भभका देती है, मोमबत्ती जलकर पिघल जाती है। ये सभी लोगों के देखने में, ज्ञान में आता ही है। दीपक प्रकाश दे रहा है। ऊर्ध्वगमन का संकेत दे रहा है। दीपक की लौ के समान अडिग बने रहो। मशाल जलती जरूर है पर प्रकाश नहीं देती है। अपने अंदर से कालिमा किट्टिमा को जरूर उगलती है। मोमबत्ती जलती मगर पिघल जाती है। मानों अपने ही जीवन को समाप्त कर लेती है। लेकिन एक दीपक ऐसा होता है जिसमें से प्रकाश निकलता है तो पहले वह स्वयं प्रकाशमान व्यक्ति प्रकाशित होता है फिर औरों को प्रकाश प्रदान कर प्रकाशित होता है। इसे ही स्व-पर प्रकाशक कहते हैं। प्रज्ञा-प्रदीपवत् ज्ञान से मिथ्याज्ञान को समाप्त कर सम्यग्ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। मानों उस आत्मा में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई फिर क्या, फिर वह सम्यक्चरित्र से बाह्य और अभ्यन्तर में प्रकाश का पुंज बन जाता है। गुरुदेव की प्रज्ञा छैनी के द्वारा जो भी मूर्तियाँ तराशी जाती हैं, वे निर्दोष चारित्र को धारण कर आगम की प्रज्ञा से परिपूरित होती हैं। अपनी ही प्रज्ञा शिष्यों के अन्दर भरने की कला में एक कुशल शिल्पी की तरह हमें दृश्यमान होते हैं। यह प्रज्ञा ऊर्ध्वगमन स्वभाव की प्राप्ति में सहकारी कारण बनती है, यह आत्म प्रज्ञा ही चेतन समयसार की उपलब्धि का विशेष साधन बनती है। जब साधक लगातार निरीहवृत्ति के साथ ध्यान का आलम्बन लेता है। आत्मा में एक ऐसे प्रकाश का उद्भव होता है जो बाह्य जगत् में आकर भी अन्दर बना रहता है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने आत्म प्रज्ञा का प्रकाश आगम का ज्ञान इस लोक के लिए प्रदान कर जीवों का परलोक सुधार दिया।