अभीक्ष्ण अर्थात् निरन्तर जो ध्यान के बाद ज्ञान में तत्पर रहता है। ऐसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी गुरुदेव के गुणों का कथन किया जा रहा है। उनके ज्ञान की तत्परता सूक्ष्मता ज्ञान की परत पर परत निकालते चलना, इसके पीछे अन्य कारण इस प्रकार हो सकता है। जैसे अपने ही आत्मदर्शन में विशुद्ध बने रहना, प्रभु दर्शन प्रभु की वाणी के प्रति विनय की सम्पन्नता प्रकट करना। शील की कठोरता नारी से नजर से नजर न मिलाना, यही शीलव्रतेष्वनतिचार यही व्यवहार उन्हें सतत् लगातार ज्ञान की ओर प्रेरित करता है। जब भी गुरुदेव दर्शकों को दर्शन देते हैं, तब भी उनकी नजर जिन ग्रन्थों पर जिनवाणी के शब्दों पर लगी रहती है। मन में जिनवाणी का चिंतन चलता है, वचन से जिनवाणी गुनगुनाते और मंत्र का उच्चारण करते नजर आते हैं। एक ही ग्रन्थ को बार-बार पढ़ने से नये-नये अर्थ की ओर जाने की यात्रा लगातार चलती ही रहती है। पर्वराज दशलक्षण के दिनों में तत्त्वार्थसूत्र पर व्याख्यान के पहले सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ को पढ़ना और व्याख्यान में नया-नया विषय देना। जैसे बाल में से खाल निकाला जा रहा हो कभी भी जिनवाणी पढ़ते समय प्रमाद का दर्शन नहीं होता। बुद्धि की क्षीणता को देखते ही बनता है। वो शब्दों के अर्थ पर अर्थ निकालते चलते हैं और उनकी याददाश्त के बारे में क्या कहें, गुरुदेव कभी भी स्वाध्याय करते वक्त शास्त्रों के पृष्ठों पर कभी क्षेपक नहीं लगाते हैं। पृष्ठ नम्बर याद रखते हैं, दूसरे दिन ग्रन्थ वहीं से खुलता है। बचपन के विद्याधर अपने स्कूली जीवन में जेब में पाठ्यक्रम की चिटें रखकर चलते थे। मौका मिलने पर याद कर लिया करते थे। ब्रह्मचारी अवस्था में रात दो बजे तक ज्ञान का अभ्यास चलता था। यह पूर्व का अभ्यास ही अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की संज्ञा का प्रदाता बना।