जैनधर्म अनादि निधन धर्म की कोटि में अपना स्थान बनाये रखा है, इसी भाव को ध्यान में रखते हुए पूर्वाचार्यों ने जिनधर्म की ध्वजा को आगे बढ़ाने का कार्य प्रारम्भ रखा। तीर्थों के उत्थान के माध्यम से, शास्त्रों के लेखन-पठन-पाठन के द्वारा अपनी चर्या साधना के द्वारा इसी परिपाटी को आगे बढ़ाने वाले आचार्य गुरुदेव हैं। उन्होंने जिनधर्म की ध्वजा की रक्षा के लिए युवावस्था में संयम धारण कर आत्म उत्थान का मार्ग प्रदर्शित किया। अपने में रहना ही जिनधर्म को आगे बढ़ाने की कला के धनिक साधक होने के नाते मुनि साधना की चतुर्थकालीन चर्या का परिपालन ही वास्तव में जैन संस्कृति का संवर्धक है। जैसे बिना बताये आना-जाना, पूर्व सूचना के शिष्यों को शिक्षादीक्षा प्रदान करना, भौतिक साधनों से दूर अलौकिकता की ओर बढ़ने बढ़ाने का भाव ही महत्त्वपूर्ण है, जो जैनधर्म और जिनशास्त्र में मुनियों की चर्या है, जैसे भूशयन करना, रात्रियोग धारण करना, अपने धर्म उपदेश में भी आगम में कथित चर्चाओं का ग्रन्थों का ही कथन करना। यह उनकी आध्यात्मिक यात्रा का ही सोपान देखने मिलता है। लौकिकता उनसे बहुत दूर रहती है, क्योंकि वे निज तत्त्व के अभ्यासी बचपन के विद्याधर की अवस्था से लेकर आज तक वहीं संस्कार कायम है, जो जैन संस्कृति के आयाम रहे। यहाँ कोई व्यायाम की जरूरत नहीं है। आत्माराम को याद रखने की बात है, जो आत्मा का दास होता है। वही शरीर से उदास होता है। जो उदास होता है वह जैन जगत् का चहेता होता है। ५० वर्षों में गुरुदेव ने जिनधर्म संरक्षण के लिए अपने समय का समय-समय पर दान कर एक नवीन दिशा प्रदान की |