जिन संस्कृति का उद्भव तीर्थंकर प्रभु की देन है। इसके उद्धार का कार्य आचार्य परमेष्ठी की जिम्मेदारी होती है, इसी जिम्मेदारी के निर्वाह को ध्यान में रखते हुए गुरुदेव ने बुन्देलखण्ड की भूमि को इस पात्रता के योग्य समझकर गाँव-गाँव, पाँव-पाँव विहार प्रारम्भ किया। इसी क्रम में तालबेहट ग्राम आना हुआ। यहाँ पर वह दृश्य देखने मिला, एक बालक कुँए से पानी निकाल रहा है। रस्सी और बाल्टी के माध्यम से परात पर गागर रखी हुई है। उसके मुख पर कपड़े का छन्ना लगा हुआ है। तब देखकर समझ में आया, यह सब जीवों की रक्षा के लिए आयाम किया जा रहा है। इस भूमि के लोगों के संस्कारों को मजबूत रखने के लिए दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा देना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन यह प्रतिमा उन श्रावकों को प्रदान करते हैं, जो उन जलाशयों के पानी का प्रयोग करता है, जहाँ अहिंसा पद्धति से जीवाणी की जा सके। इसके स्रोत स्थान जैसे कुंआ, बावड़ी, नदी, झरना आदि बहते पानी के स्थान हैं, क्योंकि जो जिस जल के जीव होते हैं वहीं जीने की योग्यता को धारण करते हैं। ५० वर्षों में गुरुदेव ने जिन संस्कृति के उद्धार के लिए भारतीय प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की। जबलपुर पिसनहारी मढ़िया में जिससे समाज में ईमानदार, नैतिकतावादी, प्रशासनिक अधिकारियों का प्रचलन ही जैन संस्कृति का संरक्षण का कारण बनेगा। फिर बाल-गोपालों में जो भक्ष्य-अभक्ष्य का भेद समाप्त हो रहा है। उसके लिए विदेशी कम्पनियों के खाद्य पदार्थ का त्याग कराकर आहार ग्रहण करना, इस आदेश का अनुपालन करने वाले श्रेष्ठ, ज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी बिना ब्रेड-बिस्कुट के त्याग के आहार नहीं लेते लोगों से। यही गुरुदेव की संस्कृति के उद्धार का उदाहरण है।