शिष्यों के निवेदन पर कृपा के वरदान का वरदहस्त सहज ही शिष्य के माथे की शोभा बना देता है। जैसे आचार्य ज्ञानसागरजी ने विद्यासागरजी के ऊपर अनुग्रह कर यही वचन दिया था, संघ को गुरुकुल बना देना। गुरु के अनुग्रह की परम्परा को कायम रखने का क्रम लगातार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के समाधि के बाद से चल रहा है। जब भी शिक्षा-दीक्षा देते हैं, तब यही कहते हैं। मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ, सब गुरुदेव करवा रहे हैं। सब कुछ करते हुए भी कर्ता बुद्धि से दूर रहते हैं और कार्य की ओर दृष्टि बनाये रखते हैं। मन्द बुद्धि शिष्य को देखकर भगाते नहीं है उसे भी चरणों में स्थान देकर उसके क्षयोपशम ज्ञान, दर्शन, चारित्र में बढ़ोत्तरी करने का क्रम बनाये रखते हैं। जैसे मैं मन्द बुद्धि उनका शिष्य, उन्हीं की कृपा का पात्र बन रत्नत्रय से शोभित हो, आत्म साधना से जीवन का उपकार करने में लगा हुआ हूँ। शिष्य यदि रूठ जाता है, उसे मनाने में इतने चतुर हैं, जैसे एक माँ अपने रूठे हुए बेटे को मनाकर दूध पिलाकर सुला देती है ऐसे ही गुरुदेव जो लोग संसार से रूठ कर आपके श्रीचरणों में मोक्षलक्ष्मी के प्राप्त करने आये हैं, आप उन्हें जिनवाणी सुनाकर आत्मा के तत्त्व में सुला देते हैं, जिससे भवसागर में रोने की पीड़ा उसकी समाप्त हो जाये। शिष्य की योग्यता के अनुसार ही उसके कार्य के निवारण के लिए उसके कार्य के विभाजन की शैली में आप पारंगत हैं। जो भी आता है संसार की मोह माया को भूल जाता है। आपके धर्म राग में रम जाता है। शिष्यों के संग्रह की चिन्ता से विमुक्त रहते हैं। उसकी योग्यता के अनुसार परीक्षण करके योग्य स्थान में स्थित करने के लिए आपकी प्रज्ञा की छैनी के द्वारा समय आने पर वह वीतराग चारित्र की प्रतिमा बन जाता है। ५० वर्षों में भीड़ नहीं भीड़ से हीरों को निकालकर तराशने के कार्य में श्रेष्ठ शिल्पी साबित हुए।