प्राचीन धर्म की धारा में बहते हुए चलना, चतुर्थकालीन चर्या का बीड़ा उठाकर दिगम्बरत्व का पालन करना हीन संहनन के साथ, यह प्रत्येक श्रमण के मन की मन:स्थिति में नहीं आ पाता तो शिथिलाचार का जगत् फैलता हुआ दिखाई देने लगता है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने अपनी चर्या से शिथिलाचार का खण्डन कर श्रमण परम्परा को प्रवाहमान बनाये रखा। इसी को आगे बढ़ाने वाले श्रमण नायक आचार्य गुरुदेव हैं। उनके पास कोई घोड़ा नहीं, गाड़ी नहीं, चौका नहीं, चूल्हा नहीं, दास नहीं, दासी नहीं, बस इन सबसे मन में उदासी अवश्य है। कूलर नहीं, पंखे का प्रयोग नहीं, हीटर का प्रयोग नहीं, बल्कि चटाई और त्राण का भी त्याग। इनकी साधना का अंग है। केशलोंच करने का आदेश अपने संघ में अपने ही हाथ से करने का बनाये रखा है। नौकर के द्वारा नहीं, अपने हाथ को ही अपना नौकर बना लो और केशलोंच कर लो। दर्पण देखकर केशलोंच नहीं करना, न संघ में कोई मुनिराज टार्च का, मोबाइल, लेपटॉप प्रयोग नहीं करते। यही प्राचीन व्यवस्था बिना बताये आना-जाना करते हैं। बिना तिथि के अतिथि बन नगर, ग्राम में प्रवेश करना, इनकी यह गुण संहिता हुआ करती है। रात में लाइट जलाकर कभी अध्ययन नहीं करते हैं, इसका निषेध करते आये हैं, जनसम्पर्क से दूर रहने वाला साधक ही आचार्य कुन्दकुन्द को मानने वाला हो सकता है। संघ के निजी पाटे, तख्त सिंहासन नहीं होते हैं। यह तो श्रावक संघ की व्यवस्था होती है न कि आचार्य मुनिसंघ की शिथिलाचार से दूर हैं। इसलिए अपने आत्म स्वभाव से भरपूर हैं। दुनियाँ के कामों से परिग्रह से बहुत दूर हैं इसलिए सबके पूज्य हैं। इन ५० वर्षों में परिग्रह से दूर रहकर श्रमण संस्कृति को प्राण प्रदान किये हैं।