वीर प्रभु के कथन के अनुसार इस युग में मुनि धर्म की पालना चल रही है। इसी का अनुकरण करते हुए गुरुदेव अपनी चर्या को शुद्ध-विशुद्ध बनाते हुए चल रहे हैं। जब वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं, उस समय प्रतिक्रमण से ध्वनि निकलती है। णवण्हंबंभचेरगुत्तीर्ण अर्थ यह हुआ-नव कोटी से ब्रह्मचर्य का पालन करना, मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना के गुणात्मक रूप में अपने ब्रह्मचर्य व्रत को मनोबल के साथ बढ़ाते चलते हैं। कभी भी इन्द्रियों की चंचलता दृष्टिगत नहीं हो पाती क्योंकि वासना उनके ऊपर प्रहार नहीं करती। वे स्व तत्त्व जिसे ज्ञान, दर्शन से युक्त कहा जाता है जो आत्मा में ही लगा रहता है। उनकी चेतन अनुभूतियाँ आत्मा के अन्दर यों ही खेलती रहती हैं, जिन्हें साधक भी नहीं जान पाता। वे अपने में लगे हैं। इसलिए निरपराधी हैं, सार इसी में है बाकी तो सब सार में बंधे हुए के समान हैं (पशु बाँधने का स्थान) और आगे ऋद्धियों का वर्णन पूर्वाचार्यों ने किया है, जिसे तप ऋद्धि कहते हैं यह तप ऋद्धि उन्हें प्राप्त होती है, जो श्मशान में पहाड़ों की गुफा में घनघोर जंगलों में भीड़ से दूर स्थानों में रहकर अनशन तप, कायक्लेश, आतापन योग, ऊनोदर तप, नीरस आहार, न चटाई आदि का प्रयोग, बिना आरम्भ परिग्रह की साधना में लगे रहते हैं। उन्हें णमो घोरगुणबंभयारीणं यह ऋद्धि प्राप्त हो जाती है, जो गुरुदेव के तप में झलकती है। इसे घोर पराक्रम कहते हैं इसी ऋद्धि के प्रसाद से अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्राप्ति होती है जिसे घोर ब्रह्मचारी कहते हैं। ५० वर्षों की अखण्ड साधना बाह्य-अभ्यन्तर जगत् में सफलता को देने वाली सिद्ध हुई है। यही शिक्षा शिष्य-शिष्याओं के लिए प्रदान कर महिलाओं से पुरुषों से बोलने का निषेध कर संदेश हमेशा देते रहते हैं।