दुनियाँ के अन्दर युग के प्रारम्भ से लेकर आज तक खोज प्रारम्भ है, कोई अणु की, परमाणु की खोज करता रहा, वनस्पति में जीव खोजता रहा, आत्मा को पकड़ने का प्रयास करता रहा। इन सब बातों से यही ज्ञात होता है कि सारे वैज्ञानिक लोग आत्म तत्त्व से अनभिज्ञ रहे। बाह्य जगत् में ही गोते लगाते रहे। पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बाह्य में नहीं, अन्तरंग में खोजते हैं। वे ही अंतर्यामी अन्दर की बात को जानते हैं। आत्म-दृष्टा बाह्य जगत् को नहीं अपने ही गिरेवान में झाँकने के लिए अभ्यस्त बना रहता है। यही अभ्यस्तता उसका अभ्यास बन जाती है। यह अभ्यास ही जग की नीरसता आत्मा की रसता जैसी स्थिति बन जाती है। रुचि से नहीं खाता- पीता। आत्म साधना करना है। इसलिए यह समझकर शरीर को साधना का माध्यम समझ कर थोड़ा बहुत डालकर फिर अपने में आ जाता है। देह से नहीं विदेह में जाने का पुरुषार्थ बनाये रखता है। भीड़ में रहकर भीड़ से अपरिचित बने रहना, परिचित भी, अपरिचित सा लगने लगे तो समझ में आता है, शरीर से बैठे हुए भी उससे दूर बैठे नजर आते हैं, जिनका दर्शन करने से आत्मा को खोजने वाला क्षणिक अंतर्मुखी बने बिना रहता नहीं है। इनकी वीतरागता की छवि में ही मानों खो जाता है। राग रंग से प्रयोजन नहीं, आत्मा में चेतना की अनुभूति में शुद्ध निश्चय नय के श्रमणों की भाँति दुनियाँ की बात को श्रवण नहीं करते। सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। तत्त्वज्ञान की सम्यक् ज्ञान की बातों को कान लगाकर सुनते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने समाज की नहीं आत्मा की सुनकर समाज के लोगों को शिष्यशिष्याओं को श्रावकों को एक नई दिशा प्रदान करने वाले आत्मबोध साधक के रूप में जाने जाते हैं।