आवश्यक जिन्हें षट् आवश्यक के नाम से आगम ग्रन्थों से जाना जाता है। यह आगम गुरुदेव की चर्या से कोई भी बिना ग्रन्थ के पढ़ सकता है। यदि वे सामायिक समता में चाहे पद्मासन से या कायोत्सर्ग मद्रा में नाशामय दुष्टि करके हाथ पर हाथ रखकर बैठे हो तो यही संदेश उनकी उस मुद्रा से मिलता है कि कुछ करो मत, कुछ देखो मत, कुछ बोलो मत। मा चिट्ठह चेष्टा मत करो। मा जंपह बोलो मत, मा चिंतह सोचो मत, यह पूर्वाचार्य नेमिचन्द्र महाराज ने अपने द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में यह उद्घोषणा ध्यान के स्वरूप बताते हुए की है। ऐसे ही आचार्य समन्तभद्र महाराज के स्वयंभू स्तोत्र का पाठ करते हैं, जिसे चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के नाम से जाना जाता है। उस समय गुरुदेव की मुख भंगिमा देखते ही बनती है। लयबद्धता मंत्रों के उच्चारण जैसी जान पड़ती है। गद्गद् भाव से जिनेन्द्र स्तुति का आनन्द लेकर मानो आत्म आनन्द में समा गये हों। उन्हीं जिनेन्द्र प्रभु की वंदना के लिए जब देवालय में जाते हैं, केवल वीतराग मुद्रा का दर्शन मात्र यही भाव होता है। न कोई आजू-बाजू के परिकर से प्रयोजन होता है। टकटकी लगाकर प्रभु को निहारते हुए भाव और काया की मृदुता ही दर्शन का निर्दोष आनन्द दे पाती है। यह कार्य नित्य का है। इसी प्रकार प्रत्याख्यान धारण की क्रिया ग्रहण के बाद त्याग चलता है। प्रतिक्रमण बिना आलम्बन के भाव विभोर होकर बाह्य जगत् से दूर रहकर अपनी ही निन्दा आलोचना में समा जाते हैं। कायोत्सर्ग काया से निर्ममत्वपना उनकी दृष्टि में उठते बैठते, खाते-पीते बना ही रहता है। ५० वर्षों में ध्यानसाधना एकान्त-प्रियता निर्दोष-चर्या पालन षट् आवश्यक स्वाश्रित क्रिया को प्रोत्साहित करना, यही शिष्यों को संदेश देते हैं।