जिनधर्म, जिनागम, जिन तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा का पालन यही धर्ममार्ग का कर्तव्य पालन है। वास्तव में धर्ममय जीवन जीने की राह है। आज्ञा में मनमर्जी नहीं, तन की अनुकूलता नहीं, धर्म का परिपालन करने के लिए मन, वचन, काय को समाहित करने में कुशल शिल्पी की तरह आगम सूत्रों के अनुरूप परिपालन करने वाले गुरुदेव आचार्य भगवन् बिना शिथिल हुए आगम की वाणी को अपने शिष्यों को घुट्टी बनाकर पिलाते हैं। बेटा, यदि तुम प्रभावना नहीं कर सकते तो अप्रभावना मत करना। उत्तर गुणों की परिपालना तभी करना जब मूलगुण निर्दोष रीति से पल रहे हों। उत्तरगुणों को दिखाने के लिए नहीं आत्मा में लब्धिस्थान, विशुद्धिस्थान बढ़ाने के लिए है। यात्रा वही, भली प्रकार मानी जाती है, जिसमें कोई दुर्घटना न हो। भले देर हो जाये कोई बात नहीं, मोक्ष जब मिलेगा, तब मिलेगा उसके फल की ओर नहीं, अपने कर्तव्य के प्रति सजगता ही आगम दर्पण है। दर्पण लोगों को नहीं देखता, लोग दर्पण में देखते हैं, इसी प्रकार लोग गुणों को नहीं दोषों को जल्दी देख लेते हैं। इसलिए सावधानी से क्रिया करो भले देर हो लेकिन कार्य भला ही हो। आगम में ३२ अन्तरायों के पालने की, ४६ दोषों के टालने की जो आज्ञा है, यह बिना प्रमाद के नित्य चलती रहना, इसमें बुद्धि का आयाम नहीं लगाना। यह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। जैसा कहा वैसा पालन करो तो साधना साधक को भगवान् बनाये बिना नहीं रुक सकती है। भक्त तुम्हारी भक्ति तभी तक करता है। जब तक तुम भगवान् की बात मानते हो। गुरुदेव ने इन ५० वर्षों में जिनवाणी के एक-एक सूत्रों को आत्मसात किया है। यही सूत्र शिष्यों और शिष्याओं को दिये हैं। इसी प्रकार अपने भक्त श्रावकों को जैन आज्ञा के लिए प्रेरित करते हुए देखे जाते हैं।