णमोकार मंत्र में प्रथम स्थान अरिहंत परमेष्ठी को प्रदान किया गया। अरि अर्थात् कर्म रूपी शत्रुओं को हनन करने वाले, अर्हंत परमात्मा होते हैं। अर्हतों की संस्कृति दिगम्बर आम्नाय वस्त्र रहित निर्विकारमय, पैदल यात्री, करपात्री के रूप में रही, इसी परम्परा का निर्वाह कर बीजारोपण बालक विद्याधर के जीवन में आचार्य शांतिसागरजी के प्रवचन सुन वैराग्य उत्पन्न हुआ, इसका फल आचार्य श्री विद्यासागरजी के रूप में फलित हुआ। शिथिलाचार से दूर मूलाचार से सहित, आगम के अनुरूप चर्या, क्रिया को धारण करने वाले सच्चे उपास्य-उपासक आचार्य गुरुदेव की समझदारी में समाहित हैं। अर्हंतो ने जो उपदेश युग के प्रारम्भ में दिया उसी परम्परा के अनुरूप संस्कृति में नियम-संयम का वितरण कर जैन श्रमण-श्रमणियों को जन्म प्रदान कर एक शुद्ध विशुद्ध परिणामों से युक्त संस्कृति को प्रोत्साहित करना, समय को खोना नहीं, समय पर काम करना, षट् आवश्यकों की वास्तविक उपयोगिता को सिद्ध करना आगम सम्मत विधि के विधाता स्वाश्रित अपने आवश्यकों का पालन करना, अपने सहारे चलने का भगवान् महावीर का मार्ग रहा। पराश्रित क्रिया संक्लेश भावों को जन्म देती है। याचना-वृत्ति को बढ़ावा प्रदान करती है। २२ परीषहों में याचना का निषेध है। आवश्यकता पड़ने पर भी याचना नहीं करना, ये बहुत बड़ी सहनशक्ति को बढ़ाने वाली साधना के दाता अर्हंत वाक्य शास्त्रों के द्वारा प्राप्त गाथाओं के अवलोकन से टीका ग्रन्थों के पठन से सिद्धान्त ग्रन्थों के अवलोकन से गुरुदेव ने श्रमण संघ के लिए इस प्रकार के सूत्र वाक्य निकालकर श्रमण के अन्दर से शिथिलाचार निकालकर महत्त्वपूर्ण कार्य ५० वर्षों में किया।