निन्दा, आलोचना पर के दोषों पर दृष्टि बनाये रखना, ये सब अवगुण है। इन सब अवगुणों से दूरी बनाये रखना ही आत्मनिष्ठावान साधक के पहचान चिह्न हुआ करते हैं। दूसरे के दोष देखकर मौन होना यह गुण आत्मा में आत्मसात करने वाला दोषों के परिमार्जन के लिए आगम में कथित उपगूहन अंग का प्रयोग करता है। यदि धर्मात्मा अपने पथ से गिर रहा हो, उसे पथ में बनाये रखने के लिए स्थितिकरण अंग का प्रयोग करते हैं। यदि किसी के दोष देखने में आ जाये तो उसे एकान्त में बुलाकर धर्म की समझाइस देना यह धर्म का समझौता करने वाला मार्ग हुआ करता है। गुरुदेव के अन्दर पैशून्य भावों से भी दूरी बनाये रखने का गुण है। वे निन्दा तो करते ही नहीं लेकिन दूसरे की चुगली भी नहीं करते। भले प्रसन्नता करते हुए तो देखा जा सकता है। शिष्यगण दोषों का प्रायश्चित लेने आते हैं तो उन्हें प्रायश्चित देकर उनके दोषों का विसर्जन कर उसे भी अपने मन मस्तिष्क से निकाल देते हैं। उसके प्रति पूर्ववत् ही प्रेम वात्सल्य उनके मन, वचन, काय में बना रहता है। वे दूसरों की शिकायत के अनुसार दण्ड नहीं देते। दोष करने वाला जब तक अपने दोषों को स्वीकार कर निन्दा, आलोचना नहीं करता। बार-बार प्रायश्चित माँगने पर फिर कहीं मिलता है। मंच से या एकान्त में दूसरे साधु की, पर धर्म की निन्दा या दोष की बात उनके मन के स्थल में कभी भी उत्पन्न नहीं होती। दूसरों की निन्दा सुनना उन्हें पसन्द नहीं, जिन पत्र-पत्रिकाओं में निन्दा, आलोचना के समाचार छपते हैं। उन्हें अपनी टेबिल में स्थान नहीं देते। शिष्यों के लिए भी छूने का निषेध करते हैं क्योंकि उससे पाप-वैर द्वेष भाव ही उत्पन्न होने वाला है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव की छवि जैन जगत् में जैनेत्तर जगत् में एक सुलझे हुए साधु की श्रेणी में रही है।