आगम ध्वनि बोलती है जो रत्नत्रय से युक्त होने वाले या योग्यता रखने वाले साधकों को पंचाचार के पालन के बिना आचार्य संहिता का निर्वाह नहीं हो सकता। जैसे-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार ये संयम के पाँच आधार हैं। जो चारित्र गुण की नींव को परिपक्व करते हैं। गुरुदेव इन पाँचों पंचाचारों में स्नातक हैं। कैसे हैं? जो कि इस प्रकार है- तत्त्व के प्रति प्रमाद रहित रुचि और रुचिकर चूर्ण के समान सेवन करते हैं और भव्यजनों को भी सेवन कराते हैं। २५ दोषों से रहित दर्शनाचार का स्वयं इसी क्रम में आगे बढ़ते हैं, वे इस तत्त्व को ज्ञान के अध्ययन से प्रकाशित करते हैं। शिष्यों में ज्ञान के सूक्ष्म तत्त्वों को आत्मा की गहराई तक छूने के लिए प्रेरित करते हैं और ज्ञान के पाँचों भेदों के परम ज्ञाता हैं। इसलिए इस युग के परमात्मा हैं, यही उनका ज्ञानाचार है। तीसरा क्रम-पाप क्रिया से दूरी बनाकर आत्मा को पुण्य से आच्छादित करते हैं, पुण्य को हेय कहने वाले लोग दुनियाँ में बहुत मिल जायेंगे, बात ऐसी है। कि पाप छूटेगा तो पुण्य आयेगा फिर आत्मा में और गहरे डूबेंगे तो पुण्य तो अपने आप ही छूट जायेगा। यही आत्मानुभूति की क्रिया में घटित होने वाली क्रिया है इस प्रकार गुरुदेव का इन्द्रिय संयम एवं प्राणिसंयम का पालन करना यही चारित्राचार है। अब चतुर्थक्रम में कहते हैं-पर शत्रुओं से युद्ध करना सरल हो सकता है। पर इन्द्रियों से युद्ध कर उनके विजेता बनना कठिन हुआ करता है यही तपाचार है। पाँचवाँ क्रम पाठकगण जाने-नीरस भोजन में रस की परिकल्पना से रूखे-सूखे भोजन को करके अपनी शक्ति को न छिपाकर बिन प्रमाद के बल पूर्वक चुस्त-पुस्त होकर साधना के बल में समझाना यही उनकी वीर चर्या है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने शिथिलाचार को किनारे कर मूल आराधना मूलाचार की मुख्यता को ध्यान, ध्येय का विषय बनाया।