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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ९५. अयाचक वृत्ति धारक

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    माँग-माँगकर जीवन चलाना याचना वृत्ति की अवधारणा को जन्म देने वाली परम्परा का प्रवाहमान, दीन-हीन करने वाली धारा को जन्म देता है। बिना माँगे जीवन का निर्वाह करना, आत्मा का उद्धार करना, पाप कर्मों का खण्डन करना, पुण्य कर्म का संग्रह करना, पुनः पाप-पुण्य का खण्डन करना, यह अयाचकपने की साधुवृत्ति की अवधारणा को जन्म देने वाली चर्या का पालन करने वाले गुरुदेव बिना माँगे ही, बिना संकेत के, बिना मन में क्लेश के याचना परीषह का पालन करते हुए नजर आते हैं। इसी कारण से आहार करते समय नजर नहीं उठाते क्योंकि नजरों से किसी को ऐसा प्रतीत न हो कि ये कुछ माँग रहे हैं। वह तो अपने कर पात्र को ही देखते हैं। दाता उसमें जो आहार सामग्री को रखते हैं, उसे शोधन करके बड़े ही उत्साह के साथ समताभाव से ग्रहण करते हैं। कभी भी वे साधुजनों को याचनावृत्ति के लिए अनुमति नहीं देते, हमेशा निषेध करते आये हैं, क्योंकि २२ परीषहों में याचना परीषह को रखा है। लिखते-लिखते पेनपेंसिल भी अवरुद्ध हो जाये तो लिखने का काम छोड़कर पठनपाठन में लग जाते हैं। यदि ग्रन्थ पढ़ने के लिये उपलब्ध नहीं हो तो मौखिक वाचना में लग जाते हैं या आम्नाय स्वाध्याय में लग जाते हैं। चाहना ही याचना की ओर ले जाने वाली क्रिया है। जिससे दीनता-हीनता ही उत्पन्न होती है। साधु परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी कभी दीन-हीन होकर अपना भोजन प्राप्त नहीं करता, ठीक इसी तरह इन ५० वर्षों में गुरुदेव याचना वृत्ति से रहित जीवनयापन के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं।


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