पार होने वाला ही दूसरों को पार लगाने की योग्यता का योग पुरुष होता है, इसीलिए उन्हें तरण तारण कहा जाता है। संसार से तरने का भाव बचपन से विद्याधर के जीवन में समाहित था। तिर्यंचों के दुखों को देखकर तिर्यंच गति के दुखों से बचने का उपाय शास्त्रों में खोजकर मुनियों की वाणी से जानकर अपने आपको बचाने का प्रयास जारी रखा। इसी तरह मनुष्य गति के दुखों को जानकर एक मित्र के भूख के कारण मरण हो जाने से वैराग्य मार्ग को स्वीकारा। जिसके अंदर संसार की असारता का भाव समाहित हो जाता है, वही संसार के दुखों से बच मोक्ष सुखों की चाहना का अभिलाषी बन संसार के रागीद्वेषियों को संसार के राग अलापने की नीति से बचाकर मोक्ष में प्रीति कराने का संकल्प उनके मानस पटल में छाया हुआ है। वे एक कुशल नाविक हैं। यात्री को कब नौका पर बिठाना है, कब वातावरण अनुकूल है, प्रतिकूलताओं से दूर है, यह सारा ज्ञान उन्हें अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी के द्वारा बहुत अल्प समय में मिला। इसी गुरु मंत्र के द्वारा संसार से पार होने वाले साधनों का प्रयोग कर रहे हैं। बारह व्रतों की तप साधना उत्तर गुणों की परिपालना, २८ मूलगुणों की आराधना, समता का भाव आत्मा के रग-रग में समाहित है। इसलिए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होते हैं। ऐसे ये अणुव्रतों-महाव्रतों की, अष्ट मूलगुणों की, ब्रह्मचर्य की, परिग्रह त्याग आदि की साधना कराकर संसार से पार कराने का धर्ममय भाव संसारी आत्माओं के अन्दर ५० वर्षों से गुरुदेव लगातार समाहित कराते हुए नजर आ रहे हैं।