दुनियाँ में मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन का बोलबोला अनादिकालीन परम्परा की परिपाटी रही है। सम्यक् साधना ही मिथ्या साधना पर प्रहार करने में सक्षम साबित होती रही है। आज साक्षात सम्यग्ज्ञान के प्रसाद को मख से वितरण करने की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने वाले गुरुदेव तीर्थंकरों के समान संसार से भयभीत प्राणियों के लिए सम्यक् निर्देश देकर समीचीन रास्ते पर अग्रसर करते हुए देखे जाते हैं। ज्ञान का अध्ययन ध्यान में चिन्तन में लाकर ज्ञान की गुंथियों को सुलझाने में सक्षम क्षमता के ज्ञानोपयोगी साधकों के परम्परा के आचार्य जैसा नाम वैसा काम, विद्या के धनी, ज्ञान के भण्डार, जिनवाणी की कृपा के पात्र, शब्दों के जादूगर, शब्दों के खिलाड़ी जैसे समुद्र के अन्दर विभिन्न प्रकार के रत्न उसके गर्भ में छुपे हुए रहते हैं, वे भाग्यवानों को ही प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार आचार्य गुरुदेव साक्षात् सम्यग्ज्ञान के समुद्र की उपाधि से विभूषित होते हुए भी भाग्यवानों को ही उनसे वह ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान मिलने पर उसको धारण करने के लिए भी क्षमता चाहिए और वह क्षमता भाग्यवानों के पास ही हुआ करती है। सम्यग्दर्शन भी मुनि महाराज के दर्शन से प्राप्त होता है सो सम्यग्ज्ञान भी मुनि महाराज से ही प्राप्त होता है। ज्ञान का सही समीचीन उपयोग मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति कर मोहमार्ग के टुकड़े कर मोक्ष के भेष को प्राप्त कर मोक्ष को भी प्राप्त किया जा सकता है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर संघ के लिए एवं समाज के लिए सम्यग्ज्ञान का ईमानदारी के साथ वितरण किया हुआ है।