क्रोध का भाव, आत्म अहित का भाव, क्षमा का भाव, आत्म उत्थान का भाव, क्रोध की अग्नि, आत्मा में अनंतानुबंधी कषाय को चिपकाने में परहेज नहीं करती, जो अनंतकालीन संसार परिभ्रमण का कारण बनती है। क्रोध को वैर का अचार या मुरब्बा है। जैसे अचार जितना पुराना होता चला जाता है, उतनी ज्यादा खटास को उत्पन्न करता है, इसी तरह क्षोभ की क्रोध की तासीर हुआ करती है। जितना अधिक समय क्रोध में बीतेगा तो वैर उत्पन्न होगा। वह अनंतानुबंधी कषाय को लेकर उत्पन्न होगा। इस प्रकार की सैद्धांतिक जानकारी के जानकार गुरुदेव अपने बचपन के जीवन से लेकर इस पचपन के ऊपर के जीवन में क्षोभ रहित परिणति को बनाये रहते हैं। क्रोध के निमित्त मिलने पर भी कभी क्रोध को उखड़ने नहीं देते। समता के साम्यभाव से दबा देते हैं और प्रसन्न बने रहते हैं क्योंकि एक कषाय अन्य कषायों को बहुत जल्दी जन्म दे देती है इसलिए वे क्षोभ की क्या कषाय की परिणति से ही रिक्त है। न कभी मान की बात है न माया की, न लोभ की बात है। आसन नहीं मिलने पर भी जमीन में मान रहित होकर बैठ जाते हैं, उसे प्राप्त करने के लिए माया को नहीं आने देते, फिर लोभ को तो यूँ ही भगा देते हैं। क्योंकि वस्तुओं के संग्रह से सदा से दूर है, सदा दूर रहने का संकल्प है। शिष्य में क्षोभ का भाव देखकर या क्षोभ को देखकर दण्ड संहिता का कानून लागू करते हुए देखा जा सकता है। इन ५० वर्षों में समुद्र के समान क्षोभ रहित जीवन शैली जीने के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त है।