साधु का जीवन अशुभ को छोड़कर हमेशा शुभ की ओर प्रवृत्तमान होता रहता है। इसी को चारित्र संज्ञा प्राप्त होती है, जो व्रत, समिति, गुप्तिरूप होता है। व्रतों की रक्षा के लिए समिति एवं गुप्ति हैं। जो मन, वचन, काय की धारा के साथ प्रवाहमान होती रहती है। गमनागमन की क्रिया में जैसे प्रवृत्ति आगम में कही गई है, वैसी ही प्रवृत्ति करना समिति है। इसी समिति के परिपालन और साथ में गुप्ति और व्रत का पालन करते हुए गुरुदेव अपने दैनिक आवश्यकों का पालन करते हैं। ये सब संयम की शुद्धिकरण के उपाय हैं। मन, वचन, काय के द्वारा सावद्य क्रियाओं को रोककर गुरुदेव अपनी गुप्ति में समाहित नजर आते हैं। वचन का प्रयोग भी वचन गुप्ति के आधार पर किया जाता है। इसी तरह राग-द्वेष से रहित होकर समस्त विकल्पों को छोड़कर अपने मन को अपनी आत्मा के वश में करके समता के भाव में स्थिर होते हुए नजर आते हैं तथा सिद्धान्त के सूत्र की रचना में या उसके मनन में पठनपाठन में लगकर ही मनोगुप्ति को प्राप्त होते हैं। मौन की प्रवृत्ति में बने रहना ही वचन गुप्ति है। काया की चंचलता को रोककर निश्चलपने को प्राप्त होना ही काय गुप्ति है। आचार्यश्री के प्रत्येक कार्य मूलाचार, भगवती आराधना, आचारसार के अनुसार ही व्यवहार और निश्चय में प्रवृत्तमान होते हैं। इसी के अनुसार ही व्यवहार और निश्चय में प्रवृत्तमान होते हैं। चलते समय, बोलते समय, आहार ग्रहण करते समय, उपकरण उठाते-रखते समय जो सावधानी रखी जाती है, इसे सम्यक् प्रवृत्ति कहा जाता है। वे हमेशा जीवों की रक्षा के लिये व्रतों के परिपालन के लिये कटिबद्ध रहते हैं। इसी तरह वे अन्य मुनि आर्यिकाओं से ऐसी ही चर्या की अपेक्षा रखते हैं। इसमें उन्हें ढील पसन्द नहीं है। लगातार ५० वर्षों से अपने गुरु के अभाव में भी गुरु के सद्भाव में उपस्थित होकर जिस चर्या का पालन करते थे। वैसी ही चर्या बिना प्रमाद के चल रही है। क्योंकि मोक्षमार्ग में प्रमाद ही पथिक का शत्रु है।