साधु का जीवन अपने में रहने का, अकेलेपन का अनुभव करने का, देह में रहकर देह से दूर रहने का, एकत्व-विभक्त तत्त्व की अनुभूति के अभ्यास का, अपने में रहना किसी से कुछ लेना न देना और मग्न रहना यह नीति आत्मा की प्रीति के साथ शरीर से निर्ममत्वपने से रहने का सफल अभ्यास प्रतिक्षण एकत्व भावना भाते रहने से निज को निजता की प्राप्ति होने में देर नहीं होती। गृहस्थ जीवन में एकत्व-विभक्तपना नहीं बनता है, क्योंकि चारित्र की प्राप्ति होने पर अभ्यास में लगे रहने से एकत्वविभक्तपना प्राप्त होने में देर नहीं लगती। शरीर अलग है आत्मा अलग है यह तत्त्वज्ञान चारित्रनिष्ठ पुरुषों के पास सहज उपलब्ध हो जाता है। गुरुदेव एकत्वविभक्तपने के जीते जागते उदाहरण हैं। वे कभी शरीर के लिए साधनों की अपेक्षा नहीं रखते, वे आत्मा में एकत्व परिणति के लिए अकेले रहकर आत्मा से संवाद कर आत्मा को पहचानने में समयसार को प्राप्त करने में ही समय को लगाते हुए निरीह वृत्ति से आत्म चिन्तन की धारा में समाहित रहते हैं। चेतना के विकास के स्तर की सोच के साथ ही जीवनशैली चला करती है। हमेशा तन और मन की खुराक से दूर रहकर आत्मा के भजन में उसी के गुणगान में आत्मस्वरूप की आकृति के दर्शन बन्द आँखों से कर शरीर का भान तक भूल जाते हैं। उपसर्ग के समय, रोग के समय, विपरीतताओं के समय, एकत्वविभक्तपने की धारा चलती रहती है। ५० वर्षों से गुरुदेव ने प्रतिक्षण असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा कर शिष्य और शिष्याओं को यही उपदेश दिया है। एकत्वविभक्तपने का अभ्यास बनाकर असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा करते हुए देखा जा सकता है।