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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ९२. आत्मगुण अनुरागी

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    शरीर से, परिवार से अनुराग करने वालों की संख्या बहुत मिल जायेगी पर आत्मा से अनुराग करने वालों की संख्या अंगुली में गिनने लायक होती है। सम्यक् मार्ग का अनुसरण करने वाला, सम्यग्दृष्टि भव्य आत्मा हुआ करती है। जिसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध और शुद्ध होता है वह आत्मा के गुणों के चिन्तन-मनन, उसी के गुणगान में अपना समय व्यतीत कर कर्म की श्रृंखला को विच्छिन्न करने में लगे रहते हैं। संसार दशा में आत्मा के ऊपर कर्मों की परत पर परत चढ़ी हुई अनंतकाल से चली आ रही है। जब भी इन परतों का खण्डन होगा, छिन्न-भिन्न होना होगा, चूर्ण रूप में परिवर्तित होने की क्रिया सम्पन्न होगी तो आत्मा के द्वारा, आत्मा के गुणों के अनुराग से उत्पन्न होगी। आत्मा अखण्ड है, अविनश्वर है, निजस्वभावी है, सड़न-गलन से रहित है, रूप-रंग से दूर है, राग-द्वेष से दूर है, गुणों से परिपूरित है, ऐसी विश्वास की धारा आत्मानुराग की धारा को प्रवाहमान करती है। अनु अर्थात् अपने पास अपने में राग उत्पन्न करना अपितु राग संसार का कारण है, पर आत्मा से राग-अनुराग प्रशस्त अनुराग की कोटि में समाहित होकर निज गुणों की माला का जाप ही वास्तव में आत्मजप का अनुष्ठान ही गुणों की प्राप्ति करने के साधन, जिनागम की प्रवेश पत्रिका में पाये जाते हैं। ५० वर्षों से गुरुदेव ने संघ के लिए, समाज के लिए, देश के लिए, इतिहास के लिए यही संदेश प्रसारित किया है। अपने ही अनुराग में अपना समय लगाते हुए देखा जाता है।


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