दीपक के तल में अँधेरे की बात दुनियाँ के अन्दर प्रचलित है, लेकिन एक ऐसा भी दीपक होता है, जिसके तल में अंधकार की बात नहीं, प्रकाश ही प्रकाश होता है, उसे रत्नदीपक के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार गुरुजी रत्नदीपक के समान हैं। चहुँ दिशाओं से प्रकाश प्रदान करते हैं। जो भी शिष्य जब कभी भी आ जाता है, रात-दिन का भेद छोड़कर उसे समीचीन दिशा प्रदान कर दशा की/परिवर्तन की भूमिका में प्रवेश कराकर सबसे पहले सम्यग्ज्ञान से उसकी आत्मा को आच्छादित करते हैं। इससे आत्मा में बैठे मिथ्यात्व के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। फिर सम्यग्दर्शन की ही शिक्षा भरकर मिथ्यादर्शन के टुकड़े कर सच्चे देव-शास्त्र-गुरु में आत्मा की परिणति को लगाकर चारित्र के पथ की ओर अग्रसर करने वाले तब समझ में आता है रत्नदीपक का मूल्य। वह तो मूल्य से रहित है, अमूल्य है। यह चेतना का प्रकाश ही चेतना को प्रकाशित कर अनंत संसार की परिधि से पार करा देती है। यह पुद्गलों का पिण्ड युक्त रत्नदीपक नहीं, यह चैतन्य भावों से सुसज्जित आगमभाषित चारित्रनिष्ठा का दीपक एक बार जलना प्रारम्भ होता है तो सम्पूर्ण जीवन तक जलता ही रहता है। न आँधी तूफान, भूचाल से प्रभावित नहीं होता क्योंकि आत्मा के उपकार में लगे हुए हैं। साथ में पर आत्माओं का भी उपकार करते रहते हैं। चाहे स्त्री हो या पुरुष हो, बच्चा हो, बच्ची हो, जैन हो, अजैन हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, सिक्ख हो, हिन्दू हो, सिन्धी हो सबके लिए उनकी भूमिका के अनुसार प्रकाश के प्रसाद का विवरण निरन्तर चला करता है। कभी विश्राम की बात नहीं, क्योंकि मोक्षमार्ग में आराम हराम है। खुश रहकर ५० वर्षों से रत्नदीपक का कार्य सुचारू रूप से आत्महित, जनहित, समाजहित, मानवहित, दीन-हीन समस्त प्राणियों के हित में लगातार गुरुदेव के द्वारा प्राप्त हो रहा है या दिख रहा है।