समय की परिस्थितियों के अनुसार व्याख्यान दिया करते हैं। कभी-कभी क्रान्तिकारी व्याख्यान भी हुआ करते हैं, कभी सुधारवादी, कभी सर्वधर्म समुदाय वाली व्याख्यान की परम्परा के धनी आचार्यश्री। बड़े बाबा मंदिर के समय ऐसे क्रांतिकारी प्रवचन देकर समाज के युवकों में उत्साह एवं जोश भर दिया, जो समाज के युवा कार्यकर्ताओं के द्वारा कारसेवा प्रदान कर मंदिर निर्माण में एक मिशाल स्थापित कर अपनी अहिंसा पद्धति की सधी हुई भाषा का यह एक नमूना था। इसी तरह आगम के शब्दों की परिभाषा व्याख्या को बदलने वालों पर भी व्याख्यान की बातों से चातुर्यपूर्ण तरीके से परिपूरित शब्दों की सहयोजना से पथभ्रष्टों को समीचीन पथ पर लगाते हुए देखा जा सकता है। उनकी वाणी में ओज है, तेज है, होशपूर्वक समायोजना की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए जन सामान्य की समझ में जो भाषा आ जाए उसी भाषा में धर्म को व्याख्यायित करते हैं। छोटा हो या बड़ा, बूढ़ा हो या जैन-अजैन कोई भी हो, सभी इनकी उस बुंदेली ओजस्वी वाणी से परिचित हैं। वाणी में क्षोभ नहीं होता। ओज जरूर होता है। क्षोभ से समाज का विध्वंस होने का खतरा बना रहता है और ओजपूर्ण वाणी के व्याख्यान से समाज में सुधार की संभावनायें बन जाती हैं। वाणी में ओज हो, चेहरे पर तनाव हो तो वह क्रोध कषाय को उत्पन्न करने में कारण बन सकता है। इससे रहित होकर ही ५० वर्षों से ऐसे ही ओज और तेज से सहित व्यक्तित्व के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं, हो रहे है|