मेरा कुछ नहीं था, ना मेरा कुछ है। यदि कुछ है तो मेरा आत्म स्वभाव, आत्मधर्म, आत्म उन्नति का सोपान ही मेरा है। इसके लिए बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से रहित, आत्म सम्पन्नता से सहित निज चैतन्य स्वभाव में लीन परम ज्ञानानन्द रसमय हूँ। आत्म महिमा से मंडित विचारधारा में जीन वाले, आकिंचन्य धर्म का पालन करने वाले गुरुदेव विद्यासागरजी दुनियाँ में आकिंचन्य की महिमा से मंडित मूर्ति के रूप में पूजे जाते हैं, जाने जाते हैं, माने जाते हैं। किंचित् मात्र भी बाह्य जगत् से बाह्य वस्तुओं से कभी प्रभावित नहीं होते। जब भी उनकी आत्मा के ऊपर प्रभाव डालने वाली कोई क्रिया देखने सुनने में आ जाती है तो वह आत्म साधना की क्रिया ही उन आकिंचन्य साधक को पसन्द आती है। वे अपने चैतन्य धन साधु-साध्वियों, ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियों के प्रति भी आकिंचन्य भाव की मुद्रा में नजर आते हैं। कभी इन चैतन्य धन में इतने आसक्त नहीं होते, जिससे आत्म साधना व्यवधान को प्राप्त हो। वे सावधान की मुद्रा में रहकर साधना को साधकर ही आकिंचन्य भाव से आदेश, निर्देश, आचार्य पद की गरिमा की परिपालना का ध्येय, ध्यान, धर्मध्यान का ध्यान रखते हुए ही संघ के पालन की क्रिया को सम्पन्न करते हुए नजर आते हैं। जब भी बोलेंगे तो आकिंचन्य भाव से लिप्त होकर ही धीर-गम्भीर, समता समरसी भाषा का प्रयोग करते हुए मन्द-मन्द मुस्कान के साथ आवाज निकलती हुई, सामने वाले का भय दूर करती हुई, मुख की प्रसन्नता का प्रसाद बाँटते हुए आकिंचन्य वाणी बिखरती हुई नजर हल्कीसी उठाकर होठों से स्पन्दन से सहित होकर चला करती है। फिर उसी आत्मा के आकिंचन्य भाव में बहुत जल्दी समाहित हो जाती है। बाहर प्रवृत्ति में प्रवृत्तमान दिखते हुए भी इन ५० वर्षों से आकिंचन्य महिमा से मंडित ही नजर आते हुए दृश्यमान होते हैं।