अपने में रहना, अपने से बात करना, चिन्ताओं के घेरे से दूरी बनाने की यह कला ही आनन्द देने वाली होती है। जो अपने आनन्द में रहते हैं उनके चेहरे पर हमेशा प्रसन्नता की लकीरें छायी रहती हैं। उस प्रसन्नता को देखने के लिए भक्तों का ताँता लगा रहता है। जिससे भक्तों की चिन्ताओं का समाधान दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है। प्रदर्शन को रोकने के लिए एक क्षण के लिए मन में रुझान उत्पन्न हो जाता है। अपना आनन्द छह आवश्यकों में लगे रहने से सहज ही आता रहता है। इसी को कहते हैं, सहज आनन्द में गोते लगाते हुए एकान्त में भी भीड़ भरे वातावरण में भी शिष्यों के घेरे के अन्दर ही वही आनन्द बना रहता है। जो दिन-रात का भेद को छोड़कर सदा एक-सा बना रहता है। यही निज का आनन्द निज को प्राप्त होकर पर को भी आनन्द देकर आँखों को तृप्त कर देता है और मन में उस आनन्द की वीतराग छवि को उत्कीर्ण कर देता है। जैसे एक शिल्पकार दीवाल पर चित्र को निर्मित कर देता है या पत्थर पर उत्कीर्ण करता है, जो बहुत समय तक ज्यों का त्यों बना रहता है। निज की परिणति पर की संगति को छोड़ने से ही प्राप्त होती है। आचार्य गुरुदेव शिष्यों से भी मोह नहीं निर्मोहपने के साथ संबंध बनाये रखते हैं। दसदस, बीस-बीस सालों में एकाध बार दर्शन देकर, कुछ दिन ठहरकर जाने की अनुमति दे देते हैं। निजता में व्यवधान अपनापन ना बने इसलिए निज के प्रयोग के साथ ५० वर्षों से जीवनयापन की साधना का अभ्यास करते हुए इस जगती पर नित्य दृश्यमान हो रहे हैं।