भद्रता ही आत्मा का भद्र परिणाम स्वभाव होता है। भद्रता ही सम्यग्दर्शन के लिए कारण/साधन बन जाती है। भद्रता, सहजता, सरलता आदमी के अंदर एक गुणों की समाहिता का क्रम पैदा करती है जो भद्र होता है। उसके जीवन की कार्य शैली भी भद्र ही होती है। सहज आकस्मिक हुआ करती है। आडम्बरों से रहित सीधी-सादी, सादा जीवन उच्च विचार की शैली का निर्वाह करते हुए चलती है। मोटा खाना, मोटा पहनना, यही उत्तम पुरुषों की पहचान होती है। बैल कितना भद्र होता है मालिक जो डाल जाता है, उसे खा लेता है। उस खाने की सामग्री को देखता है, सामग्री डालने वाले को नहीं। यही भद्रता मुनि महाराज के जीवन चरित्र में समाहित है। वे दाता को नहीं दान की सामग्री को देखते हैं, जो लेने योग्य है उसे ग्रहण कर लेते हैं बाकी को अंगुली के इशारे से हटा देते हैं। यही सहजता, सरलता उदर पोषण के लिए नित्य प्रति चला करती है, इसमें कोई बदलाव या हेरा-फेरी नहीं होती है। गुरुदेव बैठने-उठने रहने के स्थानों में ऐसी ही भद्र वृत्ति को धारण कर ग्रहण करते हैं। कभी भी बैठने उठने के रहने के स्थान शोभायमान, साजसज्जा से युक्त नहीं होते। जैसे वे हैं वैसे ही उनका बैठने-उठने के स्थान आसन हुआ करते हैं। उनकी पुस्तक ग्रन्थ भी साज-सज्जा से रहित होती है। इसी भद्रता का भद्र भावों से समायोजन करते हुए अपने संघ में शिष्यशिष्याओं को भी सहज-सरल पद्धति से रहने उठने का, बैठने का, खाने का, पीने का तरीका बताकर उन्हें भी अपने जैसा सहज, सरल बनाते हुए समाज में ५० वर्ष व्यतीत हुए गुरुदेव सदाबहार, भद्र परिणामी, सहज स्वभावी, सरल स्वभावी, सादा जीवन जीने वाले जीवित परमात्मा के नाम से विख्यात हैं।