महापुरुषों के जीवन वृत्तान्त को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उन्हें बुद्धि की अलौकिक शक्ति प्राप्त थी। यही बुद्धि का बल चारित्र की शक्ति से परिपूरित होकर पुष्टि को प्राप्त हो लोगों में संतुष्टि का वितरण करता चला करता है। वैसे दक्षिण भारत में शतरंज के खेल को बुद्धिवर्धक खेल की संज्ञा प्राप्त है। वर्तमान के विद्यासागरजी बचपन के विद्याधर की अवस्था में शतरंज के खेल में, कैरम खेलने में, गिल्ली-डंडा में और भी अन्य खेलों में बुद्धिबल के माध्यम से सामने वाले प्रतिद्वंद्वियों को पराजित करते हुए दश्यमान होते थे। कला के क्षेत्र में हस्तकला, चित्रकला आदि उन्हें में ही हासिल हो जाती थीं और सफलता के शिखर पर चढ़ा देती थीं। विद्याधर ब्रह्मचारी की अवस्था में भी जो शास्त्रीय ज्ञान कन्नड़भाषी होते हुए भी राजस्थान की मारवाड़ी, हिन्दी आदि भाषा आचार्य ज्ञानसागरजी से प्राप्त कर बुद्धि के बल से बढ़ोत्तरी को प्राप्त किया। वह ज्ञान आज भी ज्यों का त्यों उपस्थित है।ठीक आज आचार्य विद्यासागर की अवस्था में भी वही अलौकिक बुद्धिसम्पन्नता, चारित्र की निष्ठा, श्रुतज्ञान की श्रद्धा से परिपूरित होकर विकसित होता हुआ चल रहा है। विद्वानों के प्रश्नों का समाधान शास्त्रीय आधार पर मौखिक ही प्रदान कर देते हैं। कहीं भी वह उत्तर आगम से बाधित नहीं होता। आगम के आधार से ही अपने चिन्तन की धारा को गतिशील, प्रगतिशील बनाकर विद्वानों के सामने रखते हैं, जिससे सभी की जिज्ञासा शांत हो जाती है। श्रुत आराधना शिविर कुण्डलपुर एवं सिलवानी में आगम के सैद्धान्तिक विषय षट्खण्डागम, जयधवल, महाधवल, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि के उद्धरण के माध्यम से अपने मुखारविंद से धारावाही वाचना घंटों-घंटों तक प्रवाहमान करके वह बुद्धि का बल और पुष्टकारी बनता चला जाता है। वे बुद्धि में युक्ति को भी मिला देते हैं, जो काम बुद्धि से नहीं हो पाता वह युक्ति से सम्पन्न हो जाता है। उन्हें आयुर्वेदिक चिकित्सा की कई सटीक युक्तियों का सहज रीति से ज्ञान होने से कभीकभी अवसर आने पर संघ के रुग्ण साधु-साध्वियों पर प्रयोग करते हैं तो सफल हो जाते हैं और उनके सामने डिग्रीधारी चिकित्सक बौने पड़ जाते हैं। ५० वर्षों से अलौकिक बुद्धि की धारा लगातार चली आ रही है।