आत्मा आत्मध्यान की परिणति में लगकर आत्मशुद्धि में लीन होने की योग्यता प्राप्त करता है। यही योग्यता परम ध्यान की भूमिका में अहं को जलाकर अर्हम् की ओर गमन कराने में सहायक बनती है। मोक्षमार्ग का साधन ही आत्म साधन हुआ करता है, जहाँ पर राग-द्वेष से छूटकर अर्थात् प्रवृत्ति से छूटकर निवृत्ति में जाना ही आत्मा के द्वारा आत्मा की शुद्धि जो संसारी आत्माएँ राग-द्वेष में पड़ जाती हैं तो अशुद्धि की प्रवृत्ति में लग जाती हैं। इसलिए ध्यान सूत्रों के माध्यम से आत्मध्यान की भावना को भाया जाता है। पंचेन्द्रिय विषय के व्यापार को शून्य की ओर ले जाकर खड़ा कर लिया जाता है। ना मन का व्यापार होता है, ना वचन का व्यापार होता है, ना काय का व्यापार होता है। इन तीनों से रहित होने की क्रिया का व्यापार होता है, इन तीनों से रहित होने की क्रिया आत्मशुद्धि की क्रिया गुरुदेव प्रतिपल वह सिद्धस्वरूप को प्राप्त करने के लिए 'अष्टकर्म रहितोऽहम्' सूत्र की प्रवृत्ति में लगे रहते हैं या शरीर रहितोऽहम्' की भाव प्रणाली में अपने मनोयोग को प्रवृत्तमान बनाये रखते हैं। शरीर की शुद्धि के लिए केवल इतना ही प्रयास प्रवृत्ति के समय किया करते हैं। क्योंकि आहारचर्या के निमित्त काया की शुद्धि पंच अंगों के माध्यम से सम्पन्न होती है। जिसे हम पंचस्नानी के नाम से जानते हैं। आत्म साधना में प्रवृत्त होने पर केवल आत्मा के स्नान की ओर ध्यान देते हैं। शल्यत्रय रहितोऽहम्' ‘गारव रहितोऽहम्' दण्डत्रयरहितोऽहम्' ये सब आत्म शुद्धि के सूत्र उनकी आत्म साधना में ५० वर्षों से नित्यमय चर्या में समाहित होते हुए दृष्टिमान होते हैं।