जैन दर्शन में मेरुपर्वत का नाम विख्यात है। जो अपने स्थान पर स्थित है और सदा स्थित रहेगा, इसी प्रकार जैन श्रमण अपने सिद्धान्तों पर मेरु के समान आदि से लेकर अंत तक स्थित रहते हैं उन्हें उनके सिद्धान्त नियम से, आचरण से, त्याग से, तपस्या से, साधना से कोई विचलित नहीं कर सकता, वे निष्कम्प हैं। उपसर्गों की बहार आने पर भी आत्मा के ध्यान में, साधना में सदा बाहर बने रहते हैं। इस तरह परम वीतरागी, सहज स्वभावी, सरल स्वभावी गुरुदेव अपने व्रत पालन में, कर्तव्य पालन में, संघ के संचालन में, तीर्थों की रक्षा के कार्य में स्वआश्रित कार्य पद्धति के लिए मेरु के समान है। उनकी विशुद्धि बढ़ी हुई है। किसी से सलाह नहीं आत्मा से ही पूछकर, सलाह कर कार्य को गति प्रदान करने वाले हैं। चर्या के संबंध में समझौता नहीं वह तो समय पर ही सम्पादित होती है। कार्यक्रम कितना ही बड़ा हो उसकी महत्ता उसी समय तक है जब तक अपने दैनिक कार्यक्रम का समय बचा हुआ है। सामायिक के समय भी आँधी आये, तूफान आये, अपने आसन को मेरु के समान निष्कम्प बनाये रखते हैं। ऐसे ही वचनों को भी निष्कम्प बनाकर चलते हैं। जो कह दिया सो वह कार्य होकर ही रहेगा नहीं तो ‘देखो' शब्द ही अटल और प्रचलित वाक्य जिसे उपयोग करते हुए देखे जाते हैं। ठण्डी हो या गर्मी हो, बारिश हो, प्रतिकूल वातावरण हो, यदि विहार करने का मन बन गया है तो तपती दोपहरी में भी गमन के लिए कटिबद्ध रहते हैं। इतनी बढ़ती हुई उम्र में भी वह ५० वर्ष पुराना बल आज भी बरकरार है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव के कार्य मेरुवत् निष्कम्प बने रहे हैं।