जो व्यक्ति अपनी प्रसिद्धि को नहीं चाहता है, प्रसिद्धि उसके पीछे लग जाती है। नहीं चाहते हुए भी वह सहज उपलब्ध हो जाती है। बिना प्रयास के नाम की कीर्ति, काम की कीर्ति, गुणों की कीर्ति यह सब पूर्व पुण्य की परिणति के परिणाम का लेखा-जोखा ही जानो। आचार्यश्री ने कभी भी कोई कार्य ख्यातिलाभ-पूजा से रहित होकर ही किया है। उनके पूर्व के कार्य सब बिना पूर्व सूचना के ही सम्पन्न होते हैं और भीड़ का बढ़ना, जगह का कम होना, यही उनके यश का भण्डार है। सहज रीति से कभी भी व्रत प्रदान नहीं करते। जाँच-परख कर प्रदान करते हैं। बूढ़ों को नहीं, गृहस्थों को नहीं, जवान एवं नौजवान युवक एवं युवतियाँ व्रत के लिए लाइन लगाये रहते हैं। दीक्षा के लिए श्रीफलों का ढेर अर्पित कर हमेशा उत्सव जैसा वातावरण आचार्यश्री के परिकर के चारों ओर बना रहता है। बिना मीडिया के प्रचार के विहार होते ही प्रचार हो जाता है। जहाँ चातुर्मास हो जाता है, शासकीय सुविधायें बिना माँगे अपने आप मिल जाती हैं। इसका अभी का उदाहरण भोपाल का चातुर्मास जहाँ मुख्यमंत्री स्वयं सारी सुविधायें जुटाकर गुरु भक्ति में लगे रहते थे। यही यशस्वी गुण उन्हें यशवान तपस्वी संज्ञा से विभूषित करते हुए नजर आ रहा है। यश की अभिलाषा से दूर आत्म यश में समाकर जनहित कार्यक्रमों को भी बढ़ावा प्रदान करते हैं। बड़े बाबा का बड़ा मंदिर भी उनकी यशकीर्ति का प्रतिफल दिग्दर्शित कर रहा है। इन ५० वर्षों में यह सब देखने में आता रहा है।