साधुता का आभूषण क्षमा है, क्षमा ही समता की उपज है। क्षमा के बिना समस्त व्रतों की शून्यता, हीनता ही जान पड़ती है। क्षमा मजबूरी नहीं है, क्षमा व्रत है, शील है, त्याग है। व्रतों की निष्ठा, प्रतिष्ठा क्षमा के ऊपर आधारित है। धरती के लिए कितने ही प्रहार किये जाते हैं बदले में अमूल्य वस्तु प्रदान करती है। कभी सोना देती है तो कभी चाँदी देती है। कभी-कभी रत्नों का भण्डार दे देती है। मिट्टी, पत्थर तो देती ही है साथ में स्वादिष्ट जल, पानी पेय पदार्थ जो प्यासों की प्यास सहज ही बुझा देता है। और बदले में रास्ता बनाकर राहगीरों को राह बताता रहता है। ठीक गुरुदेव भी इसी तरह की जीवन शैली के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। वे क्षोभ के बदले क्षमा प्रदान करते हैं, ज्ञान की चैतन्य धारा में समाहित होकर क्षमा की परम छैनी से क्षमा की मूर्तियाँ ही तराशते हुए नजर आ जाते हैं। आँखों में प्रसन्नता चेहरे पर प्रसन्नता सदा बहती नजर आती है, गलती करो, अपराध करो। प्रायश्चित्त देने के बाद यही कहते हुए नजर आते हैं। पुनर्वृत्ति नहीं होना चाहिए। क्षमा किये हुए अपराध को कभी दोहराते नहीं, किसी से कहते नहीं अपने में रहते हैं। यही निज में रहने की कला क्षमाशीलता समता की धरोहर गुरुदेव ५० वर्षों से संघ में, समाज में, देश-विदेश में क्षमा के दायरे में बँधे हुए नजर आते रहे। कभी उन्होंने क्षमा की पाबंदी को तोड़ा-मरोड़ा नहीं। क्षमा का सिद्धान्त ही जैन आगम, जैन मुनिचर्या का सिद्धान्त रहा। मुनि है तो क्षमा निश्चित ही उनके रगों में समाहित होगी।