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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. आगे अनर्थदण्ड विरति व्रत के अतिचार कहते हैं- कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥३२॥ अर्थ - कन्दर्प (राग की अधिकता होने से हास्य के साथ अशिष्ट वचन बोलना), कौत्कुच्य (हास्य और अशिष्ट वचन के साथ शरीर से भी कुचेष्टा करना), मौखर्य (धृष्टतापूर्वक बहुत बकवाद करना), असमीक्ष्याधिकरण (बिना विचारे अधिक प्रवृत्ति करना), उपभोग-परिभोगानर्थक्य (जितने उपभोग और परिभोग से अपना काम चल सकता हो, उससे अधिक का संग्रह करना) ये पाँच अनर्थदण्डविरति व्रत के अतिचार हैं। English - Vulgar jokes, vulgar jokes accompanied by gesticulation, garrulity, unthinkingly indulging in too much action, keeping more than required consumable and non-consumable objects, are the five transgressions of the vow of desisting from unnecessary sin.
  2. इसके बाद देशव्रत के अतिचार कहते हैं- आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥३१॥ अर्थ - आनयन (अपने संकल्पित देश में रहते हुए मर्यादा से बाहर के क्षेत्र की वस्तु को किसी के द्वारा मंगाना), प्रेष्यप्रयोग (मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में किसी को भेजकर काम करा लेना), शब्दानुपात (मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में काम करने वाले पुरुषों को लक्ष्य करके खांसना वगैरह, जिससे वे आवाज सुनकर जल्दी-जल्दी काम करें), रूपानुपात (मर्यादा के बाहर काम करने वाले पुरुषों को अपना रूप दिखाकर काम कराना), पुद्गलक्षेप (मर्यादा के बाहर पत्थर वगैरह फेंककर अपना काम करा लेना) ये पाँच देशविरति व्रत के अतिचार हैं। English - Asking someone staying outside the country of one's resolve to bring something from there, commanding someone there to do something, indicating one's intentions by sounds, by showing oneself, and by throwing clod etc. are the five transgressions of the minor vow to abstain from activities beyond a country.
  3. अन्य व्रतों में दिग्विरति के अतिचार कहते हैं- ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥३०॥ अर्थ - ऊर्ध्वतिक्रम, अधोऽतिक्रम, तिर्यगतिक्रम, क्षेत्र-वृद्धि और स्मृत्यन्तराधान- ये पाँच दिग्विरति व्रत के अतिचार हैं। English - Exceeding the limits set in the directions, namely upwards, downwards and horizontally, enlarg-ing the boundaries in the accepted directions, and forgetting the bound-aries set, are the five transgressions of the minor vow of direction. विशेषार्थ - दिशाओं की परिमित मर्यादा के लांघने को अतिक्रम कहते हैं। संक्षेप में उसके तीन भेद हैं - पर्वत या अमेरिका के ऐसे ऊँचे मकान वगैरह पर चढ़ने से ऊर्ध्वतिक्रम अतिचार होता है। कुँए वगैरह में उतरने से अधोऽतिक्रम होता है और पर्वत की गुफा वगैरह में चले जाने से तिर्यगतिक्रम होता है। दिशाओं का जो परिमाण किया है, लोभ में आकर उससे अधिक क्षेत्र में जाने की इच्छा करना, क्षेत्रवृद्धि नाम का अतिचार है। की हुई मर्यादा को भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है।
  4. परिग्रह-परिमाण व्रत के अतिचार कहते हैं- क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्य प्रमाणातिक्रमाः ॥२९॥ अर्थ - क्षेत्र (खेत), वास्तु (मकान), हिरण्य (चाँदी), सुवर्ण (सोना), धन (गाय, बैल), धान्य (अनाज), दासी दास (टहल चाकरी करने वाले स्त्री पुरुष) और कुप्य (सूती, ऊनी और रेशमी वस्त्र वगैरह) इन सबके किये हुए परिमाण को लोभ में आकर बढ़ा लेना परिग्रह-परिमाण व्रत के अतिचार हैं। सभी व्रतों के अतिचार छोड़ने पर ही व्रतों का निर्दोष पालन हो । सकता है। English - Exceeding the limits set by oneself with regard to cultivable lands and houses, riches such as gold and silver, cattle and corn, men and women servants and clothes are the five transgressions of non-attachment.
  5. ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार कहते हैं- परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः ॥२८॥ अर्थ - परविवाहकरण, अपरिगृहीत इत्वरिका गमन, परिगृहीत इत्वरिका गमन, अनङ्गक्रीड़ा और कामतीव्राभिनिवेश, ये पाँच ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं। English - Bringing about the marriage of persons other than own family members, intercourse with an unchaste married woman, cohabitation with a harlot, perverted sexual practices and excessive sexual passion are the five transgressions of chastity. विशेषार्थ - कन्या के वरण करने को विवाह कहते हैं। दूसरों का विवाह करना पर-विवाह-करण है। व्यभिचारिणी स्त्री को इत्वरिका कहते हैं। वह दो प्रकार की होती है - एक जिसका कोई स्वामी नहीं है। और दूसरी जिसका कोई स्वामी है। इन दोनों प्रकार की व्यभिचारिणी। स्त्रियों के यहाँ जाना, आना उनसे बातचीत, लेन देन, वगैरह करना अपरिगृहीत और परिगृहीत इत्वरिका गमन है। कामसेवन के अंगों को छोड़कर अन्य अङ्गों से रति करना अनङ्गक्रीड़ा है। कामसेवन की अत्यधिक लालसा को कामतीव्राभिनिवेश कहते हैं। ये पाँच अतिचार ब्रह्मचर्याणुव्रत के हैं।
  6. आगे अचौर्याणुव्रत के अतिचार कहते हैं- स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥२७॥ अर्थ - स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध-राज्यातिक्रम, हीनाधिक - मानोन्मान और प्रतिरूपक-व्यवहार ये पाँच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं। English - Prompting others to steal, receiving stolen goods, underbuying in a disordered state, using false weights and measures, and deceiving others with artificial or imitation goods are the five transgressions of non-stealing. विशेषार्थ - चोर को चोरी करने की स्वयं प्रेरणा करना, दूसरे से प्रेरणा करवाना, करता हो तो उसकी सराहना करना, स्तेन-प्रयोग है। जिस चोर को चोरी करने की न तो प्रेरणा ही की और न अनुमोदना ही की ऐसे किसी चोर से चोरी का माल खरीदना तदाहृतादान है। राजनियम के विरुद्ध चोरबाजारी वगैरह करना विरुद्ध-राज्यातिक्रम है। तोलने के बांटों को मान कहते हैं और तराजु को उन्मान कहते हैं। बांट तराजु दो तरह के रखना, कमती से दूसरों को देना और अधिक से स्वयं लेना हीनाधिक-मानोन्मान है। जाली सिक्के ढालना अथवा खरी वस्तु में खोटी वस्तु मिलाकर बेचना प्रतिरूपक व्यवहार है। ये पाँच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं।
  7. अब सत्य अणुव्रत के अतिचार कहते हैं- मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्र-भेदाः ॥२६॥ अर्थ - मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूट-लेख-क्रिया, न्यासापहार और साकार-मन्त्र-भेद- ये पाँच सत्याणुव्रत के अतिचार हैं। English - Perverted teaching, divulging what is done under secrecy, forgery, misappropriation, and proclaiming others' thoughts are the five transgressions of truth. विशेषार्थ - झूठ और अहितकर उपदेश देना मिथ्योपदेश है। स्त्री और पुरुष के द्वारा एकान्त में की गयी क्रिया को प्रकट कर देना रहोभ्याख्यान है। किसी का दबाव पड़ने से ऐसी झूठ बात लिख देना, जिससे दूसरा फँस जाये, सो कूटलेख क्रिया है। कोई आदमी अपने पास कुछ धरोहर रख जाये और भूल से कम मांगे तो उसको उसकी भूल न बतला कर जितनी वह माँगे उतनी ही दे देना न्यासापहार है। चर्चा वार्ता से अथवा मुख की आकृति वगैरह से दूसरे के मन की बात को जान कर लोगों पर इसलिए प्रकट कर देना कि उसकी बदनामी हो, सो साकार-मंत्र-भेद है। ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।
  8. प्रारम्भ में अहिंसा अणुव्रत के अतिचार कहते हैं- बन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥२५॥ अर्थ - बन्ध, वध, छेद, अतिभार-आरोपण और अन्नपान-निरोध ये पाँच अहिंसा अणुव्रत के अतिचार हैं। English - Binding, beating, mutilating limbs, overloading and withholding food and drink are the fire transgressions of non-violence. विशेषार्थ - प्राणी को रस्सी सांकल वगैरह से बांधना या पिंजरे में बन्द कर देना, जिससे वह अपनी इच्छानुसार न जा सके सो बंध है। लाठी, डण्डे, कोड़े वगैरह से पीटना वध है। पूँछ, कान आदि अवयवों को काट डालना छेद है। मनुष्य या पशुओं पर उनकी शक्ति से अधिक भार लादना अथवा शक्ति से बाहर काम लेना अतिभारारोपण है। और उन्हें समय पर खाना पीना न देना अन्न-पान निरोध हैं। ये अहिंसा अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।
  9. इसी तरह व्रत और शीलों के अतिचारों की विधि कहते हैं- व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥२४॥ अर्थ - अहिंसादिक अणुव्रतों में और दिग्विरति आदि शीलों में क्रम से पाँच-पाँच अतिचार कहते हैं। English - There are five transgressions for each of the vows, minor vows, and the supplementary vows. शंका - व्रत और शील में क्या अन्तर है ? समाधान - जो व्रतों की रक्षा के लिए होते हैं, उन्हें शील कहते हैं।
  10. इसके आगे व्रतदूषक कार्यों का विवेचन करने के लिए सबसे पहले सम्यक्त्व के पाँच अतिचार कहते हैं- शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥२३॥ अर्थ - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा, अन्य दृष्टिसंस्तव, ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं। English - Doubt in the teachings of the Jina, desire for worldly enjoyment, repugnance or disgust at the afflicted, admiration for the knowledge and conduct of the wrong believer and praise of wrong believers, are the five transgressions of the right believer. विशेषार्थ - अरहन्त भगवान् के द्वारा कहे गये तत्त्वों में यह शंका होना कि ये ठीक हैं या नहीं, शंका है। अथवा अपनी आत्मा को अखण्ड अविनाशी जानकर भी मृत्यु वगैरह से डरना सो शंका है। इस लोक या परलोक में भोगों की चाह को कांक्षा कहते हैं। दुःखी, दरिद्री, रोगी आदि को देख कर उससे घृणा करना, विचिकित्सा है। मिथ्या-दृष्टियों के ज्ञान, तप वगैरह की मन में सराहना करना अन्यदृष्टि प्रशंसा है और वचन से तारीफ करना संस्तव है। ये पाँच सम्यग्दर्शन के अतिचार यानि दोष हैं।
  11. अतः सल्लेखना का निरूपण करते हैं- मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥ अर्थ - मरण काल उपस्थित होने पर गृहस्थ को प्रीतिपूर्वक सल्लेखना करना चाहिए। English - At the end of one's duration of life, the householder votaries should make their body and internal passions emaciated by abandoning their sources gradually at the approach of death. This is called Sallekhana. विशेषार्थ - सम्यक् रीति से काय को और कषाय को क्षीण करने का नाम सल्लेखना है। जब मरणकाल उपस्थित हो तो गृहस्थ को सबसे मोह छोड़कर धीरे-धीरे खाना-पीना भी छोड़ देना चाहिए और इस तरह शरीर को कृश करने के साथ ही कषायों को भी कृश करना चाहिए तथा धर्म-ध्यान-पूर्वक मृत्यु का स्वागत करना चाहिए। शंका - इस तरह जान बूझकर मौत को बुलाना क्या आत्मवध नहीं कहा जायेगा ? समाधान - नहीं, जब मनुष्य या स्त्री रागवश या द्वेष वश जहर खाकर, कुँए में या नदी में डूबकर या फाँसी लगा कर अपना घात करते हैं, तब आत्मघात होता है। किन्तु सल्लेखना में यह बात नहीं है। जैसे, कोई व्यापारी नहीं चाहता कि जिस घर में बैठ कर वह सुबह से शाम तक धन संचय करना चाहता है, वह नष्ट हो जाये। यदि उसके घर में आग लग जाती है तो भरसक उसको बुझाने की चेष्टा करता है। किन्तु जब देखता है। कि घर को बचाना असम्भव है तो फिर घर की परवाह न करके धन को बचाने की कोशिश करता है। इसी तरह गृहस्थ भी जिस शरीर के द्वारा धर्म को साधता है, उसका नाश नहीं चाहता। और यदि उसके नाश के कारण रोग आदि उसे सताते हैं तो अपने धर्म के अनुकूल साधनों से उन रोग आदि को दूर करने की भरसक चेष्टा करता है। किन्तु जब कोई उपाय कारगर होता नहीं दिखायी देता और मृत्यु के स्पष्ट लक्षण दिखायी देते हैं, तब वह शरीर की पर्वाह न करके अपने धर्म की रक्षा करता है। ऐसी स्थिति में सल्लेखना को आत्मवध कैसे कहा जा सकता है ?
  12. अगारी व्रती के जो और व्रत हैं, उन्हें कहते हैं- दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च ॥२१॥ अर्थ - दिग्विरति, देशविरति, अनर्थ-दण्ड विरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग परिमाण और अतिथि-संविभाग इन सात व्रतों से सहित गृहस्थ अणुव्रती होता है। English - The householder votaries also follow three minor vows i.e. abstaining from activity with regard to direction, country and purposeless sin, an four supplementary vows i.e. periodical concentration, fasting at regular intervals (on eighth and fourteenth day of each lunar period of 15 days), limiting consumable and non-consumable things, and partaking of one's food after feeding an ascetic. विशेषार्थ - पूर्व आदि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा बाँधकर जीवन पर्यन्त उससे बाहर न जाना और उसी के भीतर लेन देन करना दिग्विरति व्रत है। इस व्रत के पालने से गृहस्थ मर्यादा के बाहर किसी भी तरह की हिंसा नहीं करता। इसलिए उस क्षेत्र की अपेक्षा से वह महाव्रती सा हो जाता है। तथा मर्यादा के बाहर व्यापार करने से प्रभूत (बहुत) लाभ होने पर भी व्यापार नहीं करता है, अतः लोभ की भी कमी होती है। दिग्विरति व्रत की मर्यादा के भीतर कुछ समय के लिए देश का परिमाण कर लेने को देश-विरति व्रत कहते हैं। इसमें भी उतने समय के लिए श्रावक मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में महाव्रती के तुल्य हो जाता है। जिससे अपना कुछ लाभ तो न हो और व्यर्थ ही पाप का संचय होता हो ऐसे कामों को अनर्थ-दण्ड कहते हैं और उनके त्याग को अनर्थ-दण्ड विरति कहते हैं। अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं - अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और अशुभ श्रुति। दूसरों का बुरा विचारना कि अमुक की हार हो, अमुक को जेलखाना हो जाये, उसका लड़का मर जाये, यह सब अपध्यान है। दूसरों को पाप का उपदेश देना यानि ऐसे व्यापार की सलाह देना जिससे प्राणियों को कष्ट पहुँचे अथवा युद्ध वगैरह के लिए प्रोत्साहन मिले, पापोपदेश है। बिना जरूरत के जंगल कटवाना, जमीन खुदवाना, पानी खराब करना आदि प्रमादाचरित है। विषैली गैस, अस्त्र, शस्त्र आदि हिंसा की सामग्री देना हिंसादान है। हिंसा और राग आदि की बढ़ाने वाली दुष्ट कथाओं का सुनना, सुनाना आदि अशुभश्रुति है। इस प्रकार के अनर्थ दण्डों का त्याग करना अनर्थ-दण्ड विरति है। तीनों संध्याओं में समस्त पाप के कर्मों से विरत होकर नियत स्थान पर नियत समय के लिए मन, वचन और काय के एकाग्र करने को सामायिक कहते हैं। जितने समय तक गृहस्थ सामायिक करता है। उतने समय के लिये वह महाव्रती के समान हो जाता है। प्रोषध नाम पर्व का है। जिसमें पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय से निवृत्त होकर उपवासी रहती हैं, उसे उपवास कहते हैं। प्रोषध अर्थात् पर्व के दिन उपवास करने को प्रोषधोपवास कहते हैं। मोटे तौर पर तो चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है, किन्तु यथार्थ में तो सभी इन्द्रियों का विषय भोग से निवृत्त रहना ही उपवास है। इसी के लिए भोजन का त्याग किया जाता है। अतः उपवास के दिन श्रावक को सब आरम्भ छोड़कर और स्नान, तेल, फुलेल आदि न लगाकर चैत्यालय में अथवा साधुओं के निवास स्थान पर या अपने ही घर के किसी एकान्त स्थान पर धर्म-चर्चा करते हुए उपवास का समय बिताना चाहिए। खानपान, गन्ध माला वगैरह को उपभोग कहते हैं और वस्त्र, आभरण, अलंकार, सवारी, मकान वगैरह को परिभोग कहते हैं। कुछ समय के लिए अथवा जीवन पर्यन्त के लिए उपभोग और परिभोग का परिमाण करना कि मैं इतने समय तक इतनी वस्तुओं से ही अपना काम चलाऊँगा, यह उपभोगपरिभोग का परिमाण व्रत है। जो अपने संयम की रक्षा करते हुए विहार करता है, उसे अतिथि कहते हैं। अथवा जिसके आने का कोई दिन निश्चित नहीं है, वह अतिथि है। मोक्ष के लिए तत्पर संयमी अतिथि को शुद्ध चित्त से निर्दोष भिक्षा देना अतिथि–संविभाग व्रत है। ऐसे अतिथियों को आवश्यकता पड़ने पर योग्य औषध देना, रहने को स्थान देना, धर्म के उपकरण पिच्छिका कमण्डलु और शास्त्र वगैरह देना भी इसी व्रत में सम्मिलित हैं। इस सूत्र में ‘च' शब्द गृहस्थ के आगे कहे जाने वाले सल्लेखना धर्म को ग्रहण करने के लिए दिया है।
  13. क्रमशः अगारी व्रती का स्वरूप बतलाते हैं- अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ अर्थ - जो पाँचों पापों का एकदेश त्याग करता है। उस अणुव्रती को अगारी कहते हैं। अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा करने का त्याग करना प्रथम अणुव्रत है। राग, द्वेष अथवा हिंसा करने का त्याग करना प्रथम अणुव्रत है। राग, द्वेष अथवा मोह के वशीभूत होकर ऐसा वचन न बोलना, जिससे किसी का घर बरबाद हो जाये या गाँव पर मुसीबत आ जाये, दूसरा अणुव्रत है। जिससे दूसरे को कष्ट पहुँचे अथवा जिसमें राजदण्ड का भय हो ऐसी बिना दी हुई वस्तु को न लेने का त्याग, तीसरा अणुव्रत है। विवाहित या अविवाहित पर-स्त्री के साथ भोग का त्याग, चौथा अणुव्रत है। धन, धान्य, जमीन, जायदाद वगैरह का आवश्यकता के अनुसार एक प्रमाण निश्चित कर लेना, पाँचवां अणुव्रत है। इन पाँचों अणुव्रतों को जो नियमपूर्वक पालता है, वही अगारी व्रती है। English - One who observes the small vows and lives at home is a householder.
  14. आगे व्रती के भेद बतलाते हैं- अगार्यनगारश्च ॥१९॥ अर्थ - व्रती के दो भेद हैं - एक अगारी यानि गृहस्थ श्रावक और दूसरा अनगारी यानि गृहत्यागी साधु। English - The votaries are of two kinds - those who live in homes and those who have denounced home. शंका - एक साधु किसी देवालय में या खाली पड़े घर में आकर ठहर गये तो वे अगारी हो जायेंगे। और एक गृहस्थ अपनी स्त्री से झगड़ कर जंगल में जा बसा तो वह अनगारी कहलायेगा ? समाधान - अगार यद्यपि मकान को कहते हैं, किन्तु यहाँ बाहरी मकान न लेकर मानसिक मकान लेना चाहिए। अतः जिस मनुष्य के मन में घर बसा कर रहने की भावना है, वह भले ही जंगल में चला जाये, अगारी ही कहा जायेगा। और जिसके मन में वैसी भावना नहीं है, वह कुछ समय के लिए किसी मकान में ठहरने पर भी अगारी नहीं कहा जायेगा।
  15. अब व्रती का स्वरूप कहते हैं- नि:शल्यो व्रती ॥१८॥ अर्थ - जो शल्य रहित हो उसे व्रती कहते हैं। English - Anybody free from deceitfulness, non-belief in realities and desire in worldly pleasures is the votary. विशेषार्थ - शरीर में घुसकर तकलीफ देने वाले कील काँटे आदि को शल्य कहते हैं। जैसे कील काँटा कष्ट देता है, वैसे ही कर्म के उदय से होने वाला विकार भी जीव को कष्टदायक है, इसलिए उसे शल्य नाम दिया है। शल्य तीन प्रकार का है- माया, मिथ्यात्व और निदान। मायाचार या धूर्तता को माया कहते हैं। मिथ्या तत्त्वों का श्रद्धान करना, कुदेवों को पूजना मिथ्यात्व है। और विषयभोग की चाह को निदान कहते हैं। जो इन तीनों शल्यों को हृदय से निकाल कर व्रतों का पालन करता है, वही व्रती है। किन्तु जो दुनिया को ठगने के लिए व्रत लेता है, या व्रत लेकर यह सोचता रहता है कि व्रत धारण करने से मुझे भोगने के लिए अच्छी अच्छी देवांगनाएँ मिलेंगी, या जो व्रत लेकर भी मिथ्यात्व में पड़ा है, वह कभी भी व्रती नहीं हो सकता।
  16. अब परिग्रह का लक्षण कहते हैं- मूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ अर्थ - बाह्य गाय, भैंस, मणि, मुक्ता वगैरह चेतन-अचेतन वस्तुओं में तथा आन्तरिक राग, द्वेष, काम, क्रोधादि विकारों में जो ममत्व भाव है; कि ये मेरे हैं, इस भाव का नाम मूर्छा है और मूर्छा ही परिग्रह है। वास्तव में अभ्यन्तर ममत्व भाव ही परिग्रह है, क्योंकि पास में एक पैसा न होने पर भी जिसे दुनिया भर की तृष्णा है, वह परिग्रही है। बाह्य वस्तुओं को तो इसलिये परिग्रह कहा है कि वे ममत्व भाव के होने में कारण होती हैं। English - Infatuation is the desire through pramattayoga for acquisition, safeguarding, and addition to external and internal possessions.
  17. इसके बाद अब्रह्म का लक्षण बतलाते हैं- मैथुनमब्रह्म ॥१६॥ अर्थ - चारित्र मोहनीय का उदय होने पर राग भाव से प्रेरित होकर स्त्री पुरुष का जोड़ा जो रति सुख के लिए चेष्टा करता है, उसे मैथुन कहते हैं। और मैथुन को ही अब्रह्म कहते हैं। कभी-कभी दो पुरुषों में अथवा स्त्रियों में भी इस प्रकार की कुचेष्टा देखी जाती है। और कभी-कभी अकेला एक पुरुष ही काम से पीड़ित होकर कुचेष्टा कर बैठता है। वह सब अब्रह्म है। जिसके पालन से अहिंसा आदि धर्मों में वृद्धि होती है, उसे ब्रह्म कहते हैं। और ब्रह्म का नहीं होना ही अब्रह्म है। यह अब्रह्म सब पापों का पोषक है; क्योंकि मैथुन करने वाला हिंसा करता है, उसके लिए झूठ बोलता है; चोरी करता है, विवाह करके गृहस्थी बसाता है। English - Copulation through pramattayoga is unchastity.
  18. चोरी का लक्षण कहते हैं- अदत्तादानं स्तेयम् ॥१५॥ अर्थ - बिना दी हुई वस्तु का लेना चोरी है। यहाँ भी ‘प्रमत्तयोगात्। इत्यादि सूत्र से ‘प्रमत्तयोग' पद की अनुवृत्ति होती है। अतः बुरे भाव से जो परायी वस्तु को उठा लेने में प्रवृत्ति की जाती है, वह चोरी है। उस प्रवृत्ति के बाद चाहे कुछ हाथ लगे या न लगे, हर हालत में उसे चोर ही कहा जायेगा। English - Taking through pramattayoga anything that is not given is stealing.
  19. अनृत का लक्षण कहते हैं- असदभिधानमनृतम् ॥१४॥ अर्थ - जिससे प्राणियों को पीड़ा पहुँचती हो, वह बात सच्ची हो अथवा झूठी हो उसे कहना अनृत अथवा असत्य है। जैसे काने मनुष्य को काना कहना झूठ नहीं है फिर भी इससे उसको पीड़ा पहुँचती है, इसलिए ऐसा कहना असत्य ही है। आशय यह है तथा जैसा पहले ही लिख आये हैं कि प्रधान व्रत अहिंसा है। बाकी के चार व्रत उसी के पोषण और रक्षण के लिए हैं। अतः जो वचन हिंसाकारक है, वह असत्य है। English - Speaking through pramattayoga what is not commendable is the falsehood.
  20. अब हिंसा का लक्षण कहते हैं- प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥ अर्थ - प्रमादीपने से प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं। English - The severance of vitalities through pramattayoga (the mind, the speech and the body out of passion) is injury or violence. विशेषार्थ - हिंसा दो प्रकार की है - एक द्रव्य हिंसा, दूसरी भाव हिंसा संसार में सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्त से मरते भी हैं। किन्तु उनके मर जाने से ही हिंसा नहीं हो जाती। इसी से सूत्र में ‘प्रमत्तयोगात्' पद दिया है। वह पद यह बतलाता है कि जो मनुष्य जीवों की हिंसा करने के भाव नहीं रखता, बल्कि उनको बचाने के भाव रखता है, उसके द्वारा जो हिंसा होती है, उसका पाप उसे नहीं लगता। इसी से कहा है कि “प्राणों का घात कर देने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता। शास्त्रकारों ने इस बात को एक दृष्टांत के द्वारा और भी स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-एक मनुष्य देख-देख के चल रहा है। उसके पैर उठाने पर कोई क्षुद्र जन्तु उसके पैर के नीचे अचानक आ जाता है और कुचलकर मर जाता है तो मनुष्य को उस जीव के मारने का थोड़ा-सा भी पाप नहीं लगता। इसके विपरीत यदि कोई असावधानी से मार्ग में चलता है, तो उसके द्वारा किसी जीव का घात हो या न हो, उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है। जैसा कि कहा है-“जीव जिये या मरे जो अत्याचारी है, उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है। किंतु जो यत्नाचार से काम करता है, उसे हिंसा होने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता।'' अतः हिंसारूप परिणाम ही वास्तव में हिंसा है। द्रव्य हिंसा को तो केवल इसलिए हिंसा कहा है कि उसका भाव-हिंसा के साथ सम्बन्ध है। किन्तु द्रव्य हिंसा के होने पर भावहिंसा का होना अनिवार्य नहीं है। जैनेतर धर्मों में द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा को अलग-अलग न मानने से ही निम्न शंका की गयी है कि जल में जन्तु हैं, थल में जन्तु हैं, और पहाड़ की चोटी पर चले जाओ तो वहाँ भी जन्तु हैं। इस तरह समस्त लोक जन्तुओं से भरा हुआ है तो कोई अहिंसक कैसे हो सकता है। जैनधर्म में इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया है - जीव दो प्रकार के होते हैं- सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म तो न किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं, अतः उनका तो कोई प्रश्न ही नहीं। रहे स्थूल, सो जिनकी रक्षा करना संभव है, उनकी रक्षा की जाती है। अतः संयमी पुरुष को हिंसा का पाप कैसे लग सकता है।
  21. अन्य भावनाओं का निर्देश करते हैं- जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ अर्थ - संवेग और वैराग्य के लिए जगत् का और शरीर का स्वभाव विचारते रहना चाहिए। English - In order to cultivate awe at the misery of wordly existence and detachment to worldly things one should mediate over the nature of mundane existence of the universe and the body. विशेषार्थ - यह लोक अनादि-निधन है। बेंत के आसन के ऊपर एक गोल झांझ रखो और उस पर एक मृदंग खड़ा करो, ऐसा ही लोक का आकार है। इसमें भटकते हुए जीव अनन्तकाल से नाना योनियों में दुःख भोग रहे हैं। यहाँ कुछ भी नियत नहीं है। जीवन जल के बुलबुले के समान है, भोग सम्पदा बिजली की तरह चंचल है। इस तरह जगत् का स्वभाव विचारने से संसार से अरुचि पैदा होती है। इसी तरह यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है, अपवित्र है, इत्यादि काय का स्वरूप विचारने से विषयों में राग नहीं होता। अतः व्रती को जगत् का और काय (शरीर) का स्वभाव भी विचारते रहना चाहिए।
  22. इसके सिवा अन्य भावनाएँ भी बताते हैं- मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु ॥११॥ अर्थ - समस्त प्राणियों में ऐसी (मैत्री) भावना रखना चाहिए कि किसी भी प्राणी को दुःख न हो। गुणवान पुरुषों को देखकर हर्षित होना चाहिए और अपनी भक्ति प्रकट करना चाहिए। दु:खी प्राणियों को देखकर उनका दु:ख दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए और जो उद्धत लोग हैं, उनमें माध्यस्थ भाव रखना चाहिए। ऐसा करने से अहिंसा आदि व्रत परिपूर्ण होते हैं। English - Benevolence towards all living beings, joy at the sight of the virtuous, compassion and sympathy for the afflicted, and tolerance towards the insolent and ill-behaved are the right sentiments.
  23. और भी कहते हैं - दु:खमेव वा ॥१०॥ अर्थ - हिंसा आदि पाप दु:ख रूप ही हैं-ऐसी भावना रखनी चाहिए। क्योंकि हिंसादि दु:ख के कारण हैं, इसलिए दु:ख रूप ही हैं। English - These five sins should be considered and thought off as the cause of all sufferings.
  24. जैसे इन व्रतों को दृढ़ करने के लिए ये भावनाएँ कहीं हैं, वैसे ही इन व्रतों के विरोधी जो हिंसा आदि हैं, उनसे विमुख करने के लिए भी भावनाएँ कहते हैं- हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥ अर्थ - हिंसा आदि पाँच पाप इस लोक और परलोक में विनाशकारी। तथा निन्दनीय हैं, ऐसी भावना करनी चाहिए। English - The consequences of violence, falsehood, stealing, unchastity, and attachment are calamity and reproach in this world and in the next birth. विशेषार्थ - अर्थात् हिंसा के विषय में विचारना चाहिए कि जो हिंसा करता है, लोग सदा उसके बैरी रहते हैं। इस लोक में उसे फाँसी वगैरह होती है और मर कर भी वह नरक आदि में जन्म लेता है। अतः हिंसा से बचना ही श्रेष्ठ है। इसी तरह झूठ बोलने वाले का कोई विश्वास नहीं करता। इसी लोक में पहले राजा उसकी जीभ कटा लेता था। तथा उसके झूठ बोलने से जिन लोगों को कष्ट पहुँचता है, वे भी उसके दुश्मन हो जाते हैं और उसे भरसक कष्ट देते हैं। तथा मर कर वह अशुभगति में जन्म लेता है, अतः झूठ बोलने से बचना ही उत्तम है। इसी तरह चोर का सब तिरस्कार करते हैं। इसी लोक में उसे राजा की ओर से कठोर दण्ड मिलता है तथा मर कर भी अशुभगति में जाता है। अतः चोरी से बचना ही उत्तम है। तथा व्यभिचारी मनुष्य का चित्त सदा भ्रान्त रहता है। जैसे जंगली हाथी जाली हथिनी के धोखे में पड़कर पकड़ा जाता है, वैसे ही व्यभिचारी भी जब पकड़ा जाता है तो उसकी पूरी दुर्गति लोग कर डालते हैं। पुराने जमाने में तो ऐसे आदमी का लिंग ही काट डाला जाता था। आज कल भी उसे कठोर दण्ड मिलता है। मर कर भी वह दुर्गति में जाता है, अतः व्यभिचार से बचना ही हितकर है। तथा जैसे कोई पक्षी मांस का टुकड़ा लिये हो तो अन्य पक्षी उसके पीछे पड़ जाते हैं, वैसे ही परिग्रही मनुष्य के पीछे चोर लगे रहते हैं। उसे धन के कमाने, जोड़ने और उसकी रखवाली करने में भी कम कष्ट नहीं उठाना पड़ता। फिर भी उसकी तृष्णा कभी शान्त नहीं होती, तृष्णा के वशीभूत होकर उसे न्याय अन्याय का ध्यान नहीं रहता। इसी से मरकर वह दुर्गति में जाता है। यहाँ भी ‘लोभी लोभी कहकर लोग उसकी निन्दा करते हैं। अतः परिग्रह से बचना ही श्रेष्ठ है। इस तरह हिंसा आदि पापों की बुराई भी सोचते रहना चाहिए।
  25. अन्त में परिग्रहत्याग व्रत की भावनाएँ कहते हैं- मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ अर्थ - पाँचों इन्द्रियों के झट-विषयों से राग नहीं करना और अनिष्ट विषयों से द्वेष नहीं करना - ये पाँच परिग्रहत्याग व्रत की भावनाएँ हैं। जैसे इन व्रतों को दृढ़ करने के लिए ये भावनाएँ कहीं हैं, वैसे ही इन व्रतों के विरोधी जो हिंसा आदि हैं, उनसे विमुख करने के लिए भी भावनाएँ कहते हैं - English - Giving up attachment to objects agreeable to the five senses and aversion to objects disagreeable to the five senses constitute five observances of non-attachment.
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