पूर्व अध्याय में आस्रव का कथन हो चुका। उसमें पुण्यकर्म के आस्रव का मामूली-सा कथन किया था। इस अध्याय में उसका विशेष कथन करने के लिए व्रत का स्वरूप बतलाते हैं-
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥
अर्थ - हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होने को व्रत कहते हैं।
English - Desisting from injury, falsehood, stealing, unchastity, and attachment is the fivefold vow.
विशेषार्थ - हिंसा आदि पापों का बुद्धिपूर्वक त्याग करने को व्रत कहते हैं। इन पाँच पापों का स्वरूप आगे बतलायेंगे। उनको त्यागने से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच व्रत होते हैं। इन सब में प्रधान अहिंसा व्रत है, इसी से उसे सब व्रतों के पहले रखा है। शेष चारों व्रत तो उसी की रक्षा के लिए हैं। जैसे खेत में धान बोने पर उसकी रक्षा के लिये चारों ओर बाड़ लगा देते हैं, वैसे ही सत्य आदि चार व्रत अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए बाड़रूप हैं।
शंका - इन व्रतों को आस्रव का हेतु बतलाना ठीक नहीं है, क्योंकि आगे नौंवे अध्याय में संवर के कारण बतलायेंगे। उनमें जो दश धर्म हैं, उन दश धर्मों में से संयम धर्म में व्रतों का अन्तर्भाव होता है? अतः व्रत संवर के कारण हैं, आस्रव के कारण नहीं हैं ?
समाधान - यह ठीक नहीं है, संवर तो निवृत्ति रूप होता है, उसका कथन आगे किया जायेगा। और ये व्रत निवृत्ति रूप नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति रूप है। क्योंकि इनमें हिंसा, झूठ, चोरी वगैरह को त्याग कर अहिंसा पालने का, सच बोलने का, दी हुई वस्तु को लेने का विधान है। तथा जो इन व्रतों का अच्छी तरह से अभ्यास कर लेता है, वही संवर को आसानी से कर सकता है। अतः व्रतों को अलग गिनाया है।