अन्य भावनाओं का निर्देश करते हैं-
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥
अर्थ - संवेग और वैराग्य के लिए जगत् का और शरीर का स्वभाव विचारते रहना चाहिए।
English - In order to cultivate awe at the misery of wordly existence and detachment to worldly things one should mediate over the nature of mundane existence of the universe and the body.
विशेषार्थ - यह लोक अनादि-निधन है। बेंत के आसन के ऊपर एक गोल झांझ रखो और उस पर एक मृदंग खड़ा करो, ऐसा ही लोक का आकार है। इसमें भटकते हुए जीव अनन्तकाल से नाना योनियों में दुःख भोग रहे हैं। यहाँ कुछ भी नियत नहीं है। जीवन जल के बुलबुले के समान है, भोग सम्पदा बिजली की तरह चंचल है। इस तरह जगत् का स्वभाव विचारने से संसार से अरुचि पैदा होती है। इसी तरह यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है, अपवित्र है, इत्यादि काय का स्वरूप विचारने से विषयों में राग नहीं होता। अतः व्रती को जगत् का और काय (शरीर) का स्वभाव भी विचारते रहना चाहिए।