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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. इसके अनन्तर अजीवाधिकरण के भेद कहते हैं- निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥९॥ अर्थ - निर्वर्तना के दो भेद, निक्षेप के चार भेद, संयोग के दो भेद और निसर्ग के तीन भेद, ये सब अजीवाधिकरण के भेद हैं। English - Substratum of non-living for influx is of eleven kinds - two production or performance (primary-body, speech, mind, inhalation and exhalation; and secondary-making objects of wood, clay, etc or taking pictures), four kinds of placing (placing on the floor without seeing, without cleaning, in a hurry and any where without care), two combining/mixing (food/drink etc. and any other item) and three urging or behaviour (urging the body, speech and mind to act). विशेषार्थ - उत्पन्न करने, रचना करने अथवा बनाने का नाम निर्वर्तना है। उसके दो भेद हैं- मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना। शरीर, वचन, मन और श्वास-निश्वास की रचना करना मूलगुण-निर्वर्तना है और लकड़ी वगैरह पर चित्र आदि बनाना उत्तरगुण निर्वर्तना है। निक्षेप नाम रखने का है। उसके चार भेद हैं- बिना देखे वस्तु को रख देना अप्रत्यवेक्षित निक्षेप है। दुष्टतावश असावधानी से वस्तु को रखना दुःप्रमृष्ट निक्षेप है। किसी भय से या किसी अन्य कार्य करने की शीघ्रता करने से वस्तु को जमीन पर जल्दी से पटक देना सहसा-निक्षेप है। और बिना साफ की हुई तथा बिना देखी हुई भूमि में पड़े रहना अनाभोग - निक्षेप है। अनेक वस्तुओं के मिलाने को संयोग कहते हैं। उसके दो भेद हैं उपकरण संयोग और भक्तपान संयोग। शीत और उष्ण उपकरणों को मिला देना या शुद्ध और अशुद्ध उपकरणों को मिलाना उपकरण संयोग है। सचित्त और अचित्त खान पान को एक में मिला देना भक्तपान संयोग है। निसर्ग नाम प्रवृत्ति करने का है। उसके तीन भेद हैं- मनोनिसर्ग, वाग्निसर्ग और कायनिसर्ग दुष्टतापूर्वक मन की प्रवृत्ति करना मनोनिसर्ग है। दुष्टतापूर्वक वचन की प्रवृत्ति करना वाग्निसर्ग है। और दुष्टतापूर्वक काय की प्रवृत्ति करना कायनिसर्ग है।
  2. अब जीवाधिकरण के भेद कहते हैं- आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥८॥ अर्थ - संरम्भ-समारम्भ-आरम्भ ये तीन, मन-वचन-काय ये तीन, कृत- कारित-अनुमोदन ये तीन, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार, इन सबको परस्पर में गुणा करने से प्रथम जीवाधिकरण के एक सौ आठ भेद होते हैं। English - The substratum of the living is of 108 kinds made up of three stages (try to do, make arrangements and start to do) multiplied by three yoga (mind, speech and body) multiplied by three ways (do, get it done or approve others do) multiplied by four passions (anger, pride, deceitfulness and greed). विशेषार्थ - प्रमादी होकर हिंसा वगैरह करने का विचार करना संरम्भ है। हिंसा वगैरह की साधन सामग्री जुटाना समारम्भ है। हिंसा वगैरह करना आरंभ है। स्वयं करना कृत है। दूसरे से कराना कारित है। कोई करता हो तो उसकी सराहना करना अनुमोदना है। इसमें मूल वस्तु संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ है। इन तीनों में से प्रत्येक के काय, वचन और मन के भेद से तीन तीन प्रकार हैं। इन तीन तीन प्रकारों में से भी प्रत्येक भेद के कृत, कारित और अनुमोदना की अपेक्षा से तीन तीन भेद हैं। इस प्रकार संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ के नौ नौ प्रकार हुए। इन नौ नौ प्रकारों में से भी प्रत्येक प्रकार चार कषायों की अपेक्षा से चार चार प्रकार का होता है। अतः प्रत्येक के ३६,३६ भेद होने से तीनों के मिल कर १०८ भेद होते हैं। ये ही जीवाधिकरण के भेद हैं।
  3. अधिकरण के भेद बतलाते हैं- अधिकरणं जीवाजीवाः ॥७॥ अर्थ - आस्रव के आधार जीव और अजीव हैं। यद्यपि जीव और अजीव दो ही हैं, फिर भी जिस तिस पर्याय से युक्त जीव अजीव ही अधिकरण होते हैं, और पर्याय बहुत हैं। इसलिए सूत्र में ‘जीवाजीवाः बहुवचन का प्रयोग किया है। English - The living and the non-living constitute the substrate.
  4. सब संसारी जीवों में योग की समानता होते हुए भी आस्रव में भेद होने का हेतु बतलाते हैं- तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥६॥ अर्थ - तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्य, इनकी विशेषता से आस्रव में भेद हो जाता है। English - Influx is differentiated on the basis of intensity or feebleness of thought-activity, intentional or unintentional nature of the action, the substratum and its peculiar potency. विशेषार्थ - क्रोधादि कषायों की तीव्रता को तीव्रभाव कहते हैं। कषायों की मन्दता को मन्दभाव कहते हैं। अमुक प्राणी को मारना चाहिए, ऐसा संकल्प करके उसे मारना ज्ञातभाव है। अथवा प्राणी का घात हो जाने पर यह ज्ञान होना कि मैंने इसे मार दिया, यह भी ज्ञातभाव है। मद से या प्रमाद से बिना जाने ही किसी का घात हो जाना अज्ञात भाव है। आस्रव के आधार द्रव्य को अधिकरण कहते हैं। और द्रव्य की शक्ति विशेष को वीर्य कहते हैं। इनके भेद से आस्रव में अन्तर पड़ जाता है। ये जहाँ जैसे होते हैं, वैसा ही आस्रव भी होता है।
  5. साम्परायिक आस्रव के भेद कहते हैं- इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥५॥ अर्थ - इन्द्रिय पाँच, कषाय चार, अव्रत पाँच, क्रिया पच्चीस, ये सब साम्परायिक आस्रव के भेद हैं। विशेषार्थ - पाँच इन्द्रियाँ पहले कह आये हैं। चार कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ हैं; हिंसा, असत्य वगैरह पाँच अव्रत आगे कहेंगे। यहाँ पच्चीस क्रियाएँ बतलाते हैं- देव, शास्त्र और गुरु की पूजा आदि करने रूप जिन क्रियायों से सम्यक्त्व की पुष्टी होती है, उन्हें सम्यक्त्व क्रिया कहते हैं। कुदेव आदि की पूजा करने रूप जिन क्रियाओं से मिथ्यात्व की वृद्धि होती है, उन्हें मिथ्यात्व क्रिया कहते हैं। काय आदि से गमन आगमन करना प्रयोग क्रिया है। संयमी होते हुए असंयम की ओर अभिमुख होना समादान क्रिया है। जो क्रिया ईर्यापथ में निमित्त होती है, वह ईर्यापथ क्रिया है। (५) क्रोध के आवेश में जो क्रिया की जाती है, वह प्रादोषिकी क्रिया है। दुष्टतापूर्वक उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिंसा के उपकरण लेना आधिकरणिकी क्रिया है। जो क्रिया प्राणियों को दु:ख पहुँचाती है, वह पारितापिकी क्रिया है। किसी की आयु, इन्द्रिय, बल आदि प्राणों का वियोग, करना यानि जान ले लेना प्राणातिपातिकी क्रिया है (१०) प्रमादी जीव राग के वश में होकर जो सुन्दर रूप को देखने का प्रयत्न करता है, वह दर्शन क्रिया है। प्रमाद से आलिंगन करने की भावना स्पर्शन क्रिया है। विषय की नई नई सामग्री जुटाना प्रात्ययिकी क्रिया है। स्त्री, पुरुष, पशु आदि के उठने-बैठने के स्थान पर मल-मूत्र आदि करनासमन्तानुपातन क्रिया है। बिना देखी बिना साफ की हुई जमीन पर उठना बैठना अनाभोग क्रिया है (१५) दूसरे के करने योग्य काम को स्वयं करना स्वहस्त-क्रिया है। जो प्रवृत्ति पाप का कारण है, उसमें सम्मति देना निसर्ग क्रिया है। दूसरे के द्वारा किये गये पाप को प्रकट कर देना विदारण क्रिया है। चारित्र मोह के उदय से शास्त्र विहित आवश्यक क्रियाओं को पालने में असमर्थ होने पर उनका अन्यथा कथन करना, आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। शठता अथवा आलस्य से आगम में कही हुई विधि का अनादर करना, अनाकांक्ष क्रिया है (२०) छेदन भेदन आदि क्रिया में तत्पर रहना और दूसरा कोई वैसा करता हो तो देखकर प्रसन्न होना, आरम्भ क्रिया है। परिग्रह की रक्षा में लगे रहना परिग्राहिकी क्रिया है। ज्ञान दर्शन वगैरह के विषय में कपट-व्यवहार करना माया क्रिया है। कोई मिथ्यात्व क्रिया करता हो या दूसरे से कराता हो तो उसकी प्रशंसा करके, उसे उस काम में दृढ़ कर देना मिथ्यादर्शन क्रिया है। संयम को घातने वाले कर्म के उदय से संयम का पालन नहीं करना, अप्रत्याख्यान क्रिया है (२५) ये पच्चीस क्रियाएँ हैं, जो साम्परायिक आस्रव के कारण हैं। English - The subdivisions of the samparayik influx are the five senses (touch, taste, smell, sight and hearing), the four passions (anger, pride, deceit fulness and greed), non-observance of the five vows (killing, uttering falsehood, stealing, unchastity and attachment) and the following twenty-five activities: (1) Samyaktva-kriya (actions which stregthen right faith, such as worship true God, true preceptors and reading etc. true scriptures) (2) Mithyatva-kriya (worship of false God, false preceptor and reading etc. of untrue scriptures etc.) (3) Prayoga-kriya (going and returning) (4) Samadan-kriya (neglect of vows) (5) Iryapath-kriya (walking carefully looking on the ground) (6) Pradoshiki-kriya (blaming others in anger) (7) Kayiki-Kriya (act in wicked ways) (8) Adhikaran-kriya (keeping arms and amunition) (9) Paritapiki-kriya (causing pain to the living beings) (10) Pranitipatiki kriya (taking away life, senses, energy and respiration) (11) Darshan-kriya (infatuation to see beautiful forms) (12) Sparshan-kriya (pleasurable touch sensation due to passion for sex) (13) Pratyayiki-kriya (make available novel equipment for voilence etc.) (14) Samantanupat-kriya (shitting and urinating at the places where animals and humas go, come, sit etc.) (15) Anabhoga-kriya (putting things on the ground or lying/sitting on the ground without looking at the ground) (16) Svahasta-kriya (to do work meant to be done by others on account of greed) (17) Nisarga-kriya (approve or appreciate injurious or unrighteous activities) (18) Vidaran-kriya (proclaiming others' sins) (19) Agya-Vyapadiki-kriya (mis-interpreting the injunctions laid down in the scriptures) (20) Anakanksha-kriya (indifference to injunctions laid down in the scriptures) (21) Prarambha-kriya (feeling delighted or indulgence in piercing, hewing, slaughtering etc. of living beings) (22) Parigrahiki-kriya (preserving attachment to worldly objects) (23) Maya-kriya (deceitful practice with regard to knowledge, faith, conduct etc.) (24) Mithyadarshan-kriya (confirming wrong belief by praising another person's wrong belief) (25) Apratyakhyana-kriya (not renouncing what can be renounced).
  6. आगे स्वामी की अपेक्षा आस्रव के भेद कहते हैं- सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥४॥ अर्थ - कषाय सहित जीवों के साम्परायिक आस्रव होता है। और कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है। English - There are two kinds of influx, namely samparayik influx caused to persons with passions, which extends transmigration, and iryapath influx caused to persons free from passions, which prevents or shortens transmigration. विशेषार्थ - स्वामी के भेद से आस्रव में भेद है। आस्रव के स्वामी दो हैं- एक सकषाय जीव, दूसरे कषाय रहित जीव। जैसे वट आदि वृक्षों की कषाय यानि गोंद वगैरह चिपकाने में कारण होती है, उसी तरह क्रोध आदि भी आत्मा से कर्मों को चिपटा देते हैं, इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं। तथा जो आस्रव संसार का कारण होता है, उसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं और जो आस्रव केवल योग से ही होता है, उसे ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। इस ईर्यापथ आस्रव के द्वारा जो कर्म आते हैं, उनमें एक समय की भी स्थिति नहीं पड़ती; क्योंकि कषाय के न होने से कर्म जैसे ही आते हैं, वैसे ही चले जाते हैं। इसी से कषाय सहित जीवों के जो आस्रव होता है; उसका नाम साम्परायिक है; क्योंकि वह संसार का कारण है। और कषाय रहित जीवों के अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक जो आस्रव होता है, वह केवल योग से ही होता है, इसलिए उसे ईर्यापथ आस्रव कहते हैं।
  7. योग के द्वारा जो कर्म आता है, वह कर्म दो प्रकार का है-पुण्य कर्म और पाप कर्म। अतः अब यह बताते हैं कि किस योग से किस कर्म का आस्रव होता है | शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥ अर्थ - शुभ योग से पुण्य कर्म का आस्रव होता है और अशुभ योग से पाप कर्म का आस्रव होता है। English - Influx is of two types-the good and the evil caused by virtuous and wicked yoga respectively. The influx of good karmas helps purify the soul while the influx of evil karmas takes the soul away from its purification. विशेषार्थ - किसी के प्राणों का घात करना, चोरी करना, मैथुन सेवन करना आदि अशुभ काय योग है। झूठ बोलना, कठोर असभ्य वचन बोलना आदि अशुभ वचन योग है। किसी के मारने का विचार करना, किसी से ईर्ष्या रखना आदि अशुभ मनोयोग है। इनसे पाप-कर्म का आस्रव होता है। तथा प्राणियों की रक्षा करना, हित मित वचन बोलना, दूसरों का भला सोचना आदि शुभ योग है। इनसे पुण्य-कर्म का आस्रव होता है। शंका - योग शुभ अशुभ कैसे होता है? समाधान - शुभ परिणाम से होने वाला योग शुभ है और अशुभ परिणाम से होने वाला योग अशुभ है। शंका - जो शुभ कर्मों का कारण है, वह शुभ योग है और जो पाप कर्मों के आगमन में कारण है, वह अशुभ योग है। यदि ऐसा लक्षण किया जाय तो क्या हानि है? समाधान - यदि ऐसा लक्षण किया जायेगा तो शुभ योग का अभाव ही हो जायेगा; क्योंकि आगम में लिखा है कि जीव के आयुकर्म के सिवा शेष सात कर्मों का आस्रव सदा होता रहता है। अतः शुभ योग से भी ज्ञानावरण आदि पाप कर्मों का बन्ध होता है। इसलिए ऊपर का लक्षण ही ठीक है। शंका-जब शुभयोग से भी घाति कर्मों का बन्ध होता है, तो सूत्रकार ने ऐसा क्यों कहा कि शुभ योग से पुण्य कर्म का बन्ध होता है? समाधान - यह कथन घाति कर्मों की अपेक्षा से नहीं है। किन्तु अघाति कर्मों की अपेक्षा से है। अघातिया कर्म के दो भेद हैं- पुण्य और पाप। सो उनमें से शुभयोग से पुण्यकर्म का आस्रव होता है और अशुभ योग से पापकर्म का आस्रव होता है। शुभ योग के होते हुए भी घातिया कर्मों का अस्तित्व रहता है, उनका उदय भी होता है, उसी से घातिया कर्मों का बन्ध होता है।
  8. यह योग ही आस्रव है- स आस्रवः ॥२॥ अर्थ - यह योग ही आस्रव है। जैसे सरोवर में जिस द्वार से पानी आता है, वह द्वार पानी के आने में कारण होने से, आस्रव कहा जाता है; वैसे ही योग के निमित्त से आत्मा में कर्मों का आगमन होता है, इसलिए योग ही आस्रव है। आस्रव का अर्थ ‘आगमन' है। English - These three types of yoga cause vibration/throbbing in the space points of soul resulting in influx (asrava) i.e. incoming of karmas.
  9. अजीव तत्त्व का व्याख्यान करके, अब आस्रव तत्त्व का कथन करते हैं- कायवाङ्मन:कर्म योगः ॥१॥ अर्थ - काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। English - The action of the body, the speech organ and the mind is called yoga (activity). विशेषार्थ - वास्तव में तो आत्मा के प्रदेशों में जो हलन-चलन होती है, उसका नाम योग है। वह योग या तो शरीर के निमित्त से होता है। या वचन के निमित्त से होता है अथवा मन के निमित्त से होता है। इसलिए निमित्त के भेद से योग के तीन भेद हो जाते हैं- काययोग, वचनयोग और मनोयोग। प्रत्येक योग के होने में दो कारण होते हैं- एक अन्तरंग कारण, दूसरा बाह्य कारण। अल्पज्ञानियों में अन्तरंग कारण कर्मों का क्षयोपशम है। और केवल-ज्ञानियों में अन्तरंग कारण कर्मों का क्षय है। तथा बाह्य कारण वे नो-कर्म वर्गणाएँ हैं, जिनसे शरीर, वचन और मन की रचना होती है। तथा जिन्हें जीव हर समय ग्रहण करता रहता है। अतः वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा की सहायता से जो आत्म प्रदेशों में हलन-चलन होता है, उसे काययोग कहते हैं। वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षयोपशम होने से जब जीव में वाग्लब्धि प्रकट होती है और वह बोलने के लिए तत्पर होता है तब वचन वर्गणा के निमित्त से जो आत्म प्रदेशों में हलन-चलन होता है, उसे वचन योग कहते हैं। वीर्यान्तराय और नौ इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशमरूप मनोलब्धि के होने पर तथा मनोवर्गणा का आलम्बन पाकर चिन्तन के लिए तत्पर हुए आत्मा के प्रदेशों में जो हलन-चलन होता है, उसे मनोयोग कहते हैं। उक्त कर्मों का क्षय होने पर तीनों वर्गणाओं की अपेक्षा से सयोग केवली के आत्म प्रदेशों में जो हलन चलन होता है, वह कर्मक्षय निमित्तक योग है। इस तरह योग तेरहवें गुणस्थान तक ही रहता है। इसी से चौदहवें गुणस्थान का नाम अयोगकेवली है। अयोग केवली के तीनों प्रकार की वर्गणाओं का आना रुक जाता है, इससे वहाँ योग का अभाव हो जाता है।
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