अब हिंसा का लक्षण कहते हैं-
प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥
अर्थ - प्रमादीपने से प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं।
English - The severance of vitalities through pramattayoga (the mind, the speech and the body out of passion) is injury or violence.
विशेषार्थ - हिंसा दो प्रकार की है - एक द्रव्य हिंसा, दूसरी भाव हिंसा संसार में सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्त से मरते भी हैं। किन्तु उनके मर जाने से ही हिंसा नहीं हो जाती। इसी से सूत्र में ‘प्रमत्तयोगात्' पद दिया है। वह पद यह बतलाता है कि जो मनुष्य जीवों की हिंसा करने के भाव नहीं रखता, बल्कि उनको बचाने के भाव रखता है, उसके द्वारा जो हिंसा होती है, उसका पाप उसे नहीं लगता। इसी से कहा है कि “प्राणों का घात कर देने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता।
शास्त्रकारों ने इस बात को एक दृष्टांत के द्वारा और भी स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-एक मनुष्य देख-देख के चल रहा है। उसके पैर उठाने पर कोई क्षुद्र जन्तु उसके पैर के नीचे अचानक आ जाता है और कुचलकर मर जाता है तो मनुष्य को उस जीव के मारने का थोड़ा-सा भी पाप नहीं लगता। इसके विपरीत यदि कोई असावधानी से मार्ग में चलता है, तो उसके द्वारा किसी जीव का घात हो या न हो, उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है। जैसा कि कहा है-“जीव जिये या मरे जो अत्याचारी है, उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है। किंतु जो यत्नाचार से काम करता है, उसे हिंसा होने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता।'' अतः हिंसारूप परिणाम ही वास्तव में हिंसा है। द्रव्य हिंसा को तो केवल इसलिए हिंसा कहा है कि उसका भाव-हिंसा के साथ सम्बन्ध है। किन्तु द्रव्य हिंसा के होने पर भावहिंसा का होना अनिवार्य नहीं है। जैनेतर धर्मों में द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा को अलग-अलग न मानने से ही निम्न शंका की गयी है कि जल में जन्तु हैं, थल में जन्तु हैं, और पहाड़ की चोटी पर चले जाओ तो वहाँ भी जन्तु हैं। इस तरह समस्त लोक जन्तुओं से भरा हुआ है तो कोई अहिंसक कैसे हो सकता है। जैनधर्म में इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया है - जीव दो प्रकार के होते हैं- सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म तो न किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं, अतः उनका तो कोई प्रश्न ही नहीं। रहे स्थूल, सो जिनकी रक्षा करना संभव है, उनकी रक्षा की जाती है। अतः संयमी पुरुष को हिंसा का पाप कैसे लग सकता है।