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  1. अब दस धर्मों को कहते हैं- उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥६॥ अर्थ - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य, ये दस धर्म के भेद हैं। क्रोध की उत्पत्ति के निमित्त होते हुए भी परिणामों में मलिनता न होना क्षमा है। उत्तम जाति, कुल, रूप, विज्ञान, ऐश्वर्य वगैरह के होते हुए भी उनका घमण्ड नहीं करना मार्दव है। मन, वचन और काय की कुटिलता का न होना आर्जव है। लोभ का अत्यन्त अभाव शौच है। लोभ चार प्रकार का होता है- जीवन का लोभ, नीरोगता का लोभ, इन्द्रियों का लोभ और भोग्य सामग्री का लोभ। इन चारों ही लोभों का अभाव होना शौच धर्म है। सज्जन पुरुषों के बीच में सुन्दर वचन बोलना सत्य धर्म है। English - Supreme forbearance, modesty, straightforwardness, purity, truthfulness, self-restraint, austerity, renunciation, non-attachment and celibacy constitute virtue or duty. शंका - सत्य धर्म और भाषा समिति में क्या अन्तर है ? समाधान - संयमी मनुष्य साधुजनों से या असाधुजनों से बातचीत करते समय हित मित ही बोलता है, अन्यथा यदि बहुत बातचीत करे तो राग और अनर्थ-दण्ड आदि दोषों का भागी होता है। यह भाषासमिति है। किन्तु सत्य धर्म में संयमी जनों को अथवा श्रावकों को ज्ञान चारित्र आदि की शिक्षा देने के उद्देश्य से अधिक बोलना भी बुरा नहीं है। ईर्या समिति वगैरह का पालन करते समय एकेन्द्रिय आदि जीवों को पीड़ा न पहुँचाना प्राणिसंयम है और इन्द्रियों के विषयों में राग का न होना इन्द्रियसंयम है। इस तरह संयम दो प्रकार का है। कर्मों का क्षय करने के लिए अनशन आदि करना तप है। चेतन और अचेतन परिग्रह को छोड़ना त्याग है। शरीर वगैरह से भी ममत्व न करना आकिंचन्य है। पहले भोगी हुई स्त्री को स्मरण न करके तथा स्त्री मात्र की कथा के सुनने से विरक्त होकर स्त्री से संयुक्त शय्या, आसन पर भी न बैठना और अपनी आत्मा में ही लीन रहना ब्रह्मचर्य है। ये दस धर्म संवर के कारण हैं। इनके पहले जो उत्तम विशेषण लगाया है, वह यह बतलाने के लिए लगाया है कि किसी लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए क्षमा आदि को अपनाना उत्तम क्षमा नहीं है।
  2. यद्यपि गुप्ति का पालक मुनि मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को रोकता है, किन्तु आहार के लिये, विहार के लिये और शौच आदि के लिये उसे प्रवृत्ति अवश्य करनी पड़ती है। अतः प्रवृत्ति करते हुए भी जिससे आस्रव नहीं हो ऐसा उपाय बतलाने के लिये समिति को कहते हैं- ईर्या-भाषैषणादान-निक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ अर्थ - ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं। यहाँ पूर्व सूत्र से सम्यक् पद की अनुवृत्ति होती है, अतः पाँचों में सम्यक् पद लगा लेना चाहिए। अर्थात् सम्यक् ईर्या, सम्यक्भाषा, सम्यक् एषणा, सम्यक् आदाननिक्षेप और सम्यक् उत्सर्ग। सूर्य का उदय हो जाने पर जब प्रकाश इतना फैल जाये कि आँखों से प्रत्येक वस्तु साफ दिखायी देने लगे, उस समय मनुष्यों के पद संचार से जो मार्ग प्रासुक हो उस मार्ग पर चार हाथ जमीन आगे देखते हुए, सब ओर से मन को रोक कर धीरे-धीरे गमन करना ईर्या समिति है। हित-मित और सन्देह रहित वचन बोलना भाषासमिति है। अर्थात् मिथ्या वचन, निन्दापरक वचन, अप्रिय वचन, कषाय के वचन, भेद डालने वाले वचन, निस्सार अथवा अल्पसार वाले वचन, सन्देह से भरे हुए वचन, भ्रम पैदा करने वाले वचन, हास्य वचन, अयुक्त वचन, असभ्य वचन, कठोर वचन, अधर्मपरक वचन और अतिप्रशंसा परक वचन साधु को नहीं बोलना चाहिए। दिन में एक बार श्रावक के घर जाकर नवधाभक्ति पूर्वक तथा कृत, कारित, अनुमोदना आदि दोषों से रहित दिया हुआ निर्दोष आहार खड़े होकर अपने पाणिपात्र में ही ग्रहण करना एषणा समिति है। शास्त्र, कमण्डलु आदि धर्म के उपकरणों को देखभाल कर तथा पिच्छिका से साफ करके रखना उठाना आदाननिक्षेपण समिति है। त्रस और स्थावर जीवों को जिससे बाधा न पहुँचे इस तरह से शुद्ध जन्तु रहित भूमि में मलमूत्र आदि करना उत्सर्ग समिति है। इस तरह ये पाँचों समितियाँ संवर की कारण हैं। English - Iryasamity (to inspect ground in front while walking), Bhashasamity (to speak words which are beneficial, moderate, lovable, undoubtful, not to cause passions, not in conflict with the religion), Aishnasamity (to have pure food without any defects/shortcomings), Adan-Nikshepansamity (to carefully place, lite or handle everything) and Utsargasamity (to discharge stool, urin etc. at a lifeless place) are fivefold regulation of activities. शंका - ये समितियाँ तो वचन गुप्ति और कायगुप्ति के ही अन्तर्भूत हैं, इन्हें अलग क्यों कहा ? समाधान - काल का प्रमाण करके समस्त योगों का निग्रह करना तो गुप्ति है। और जो अधिक समय तक गुप्ति का पालन करने में असमर्थ हैं, उनका शुभ क्रियाओं में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करना समिति है। यही दोनों में भेद है।
  3. अब गुप्ति का लक्षण कहते हैं - सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ अर्थ - योग अर्थात् मन, वचन और काय की स्वेच्छाचारिता को रोकना गुप्ति है। लौकिक प्रतिष्ठा अथवा विषयसुख की इच्छा से मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को रोकना, गुप्ति नहीं है; यह बतलाने के लिये ही सूत्र में सम्यक् पद दिया है। अतः जिससे परिणामों में किसी तरह का संक्लेश पैदा न हो, इस रीति से मन, वचन और काय की स्वेच्छाचारिता को रोकने से उसके निमित्त से होने वाला कर्मों का आस्रव नहीं होता। उस गुप्ति के तीन भेद हैं- कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति। English - Stopping activity of the mind, speech, and body without desire for material gains or fame is called control of mind, speech, and body.
  4. अब संवर का प्रमुख कारण बतलाते हैं- तपसा निर्जरा च ॥३॥ अर्थ - तप से संवर भी होता है और निर्जरा भी होती है। English - Penance (austerity) results in stoppage and dissociation. विशेषार्थ- यद्यपि दस धर्मों में तप आ जाता है, फिर भी तप का अलग से ग्रहण यह बतलाने के लिए किया है कि तप से नवीन कर्मों का आना रुकता है और पहले बन्धे हुए कर्मों की निर्जरा भी होती है। तथा तप संवर का प्रधान कारण है। यद्यपि तप को सांसारिक अभ्युदय का भी कारण बतलाया है, किन्तु तप का प्रधान फल तो कर्मों का क्षय होना है। और गौण फल सांसारिक अभ्युदय की प्राप्ति है। अतः तप अनेक काम करता है।
  5. अब संवर के कारण बतलाते हैं- स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥२॥ अर्थ - वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है। संसार के कारणों से आत्मा की रक्षा करना गुप्ति है। प्राणियों को कष्ट न पहुँचे इस भावना से यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना समिति है। जो जीव को उसके इष्ट स्थान में धरता है, वह धर्म है। संसार, शरीर वगैरह का स्वरूप बार-बार विचारना अनुप्रेक्षा है। भूख प्यास वगैरह का कष्ट होने पर उस कष्ट को शान्ति पूर्वक सहन करना परीषहजय है। संसारभ्रमण से बचने के लिए, जिन क्रियाओं से कर्मबन्ध होता है, उन क्रियाओं को छोड़ देना चारित्र है। English - Stoppage is effected by control, carefulness, virtue, the meditation about self etc., conquest over afflictions by endurance and conduct. विशेषार्थ - संवर का प्रकरण होते हुए भी जो इस सूत्र में संवर का ग्रहण करने के लिए ‘स' शब्द दिया है, वह बतलाता है कि संवर, गुप्ति वगैरह से ही हो सकता है, किसी दूसरे उपाय से नहीं हो सकता; क्योंकि जो कर्म राग, द्वेष या मोह के निमित्त से बंधता है वह उनको दूर किये बिना नहीं रुक सकता।
  6. अब बन्ध तत्त्व का वर्णन करने के बाद बन्ध के विनाश के लिए संवरतत्त्व का वर्णन करते हैं। प्रथम ही संवर का लक्षण कहते हैं- आस्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ अर्थ - नये कर्मों के आने में जो कारण है, उसे आस्रव कहते हैं। और आस्रव के रोकने को संवर कहते हैं। संवर के दो भेद हैं-भाव संवर और द्रव्य संवर। जो क्रियाएँ संसार में भटकने में हेतु हैं, उन क्रियाओं का अभाव होना; भाव संवर है और उन क्रियाओं का अभाव होने पर क्रियाओं के निमित्त से जो कर्म पुद्गलों का आगमन होता था, उनका रुकना द्रव्य संवर है। English - The obstruction of influx is stoppage (sanvara)
  7. अब पाप प्रकृतियों को कहते हैं- अतोऽन्यत्पापम् ॥२६॥ अर्थ - इन पुण्य कर्म प्रकृतियों के सिवा शेष कर्म प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं। सो ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की छब्बीस, अन्तराय की पाँच, ये घातिया कर्मों की प्रकृतियाँ पाप-प्रकृतियाँ हैं। नरक गति, तिर्यञ्च गति, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरक गत्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति ये नामकर्म की चौंतीस प्रकृतियाँ, असाता वेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र। इस तरह बयासी प्रकृतियाँ पाप-प्रकृतियाँ हैं। English - The remaining varieties of karma constitute demerit. विशेषार्थ - घातिया कर्म तो चारों अशुभ ही हैं और अघातिया कर्मों की प्रकृतियाँ पुण्य रूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। उनमें भी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पुण्य रूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। इसलिए उनकी गणना पुण्य प्रकृतियों में भी की जाती है और पाप प्रकृतियों में भी की जाती है। इससे ऊपर गिनाई गयी पुण्य और पाप प्रकृतियों का जोड़ ८२+४२ =१२४ होता है। किन्तु बन्ध प्रकृतियाँ १२० ही हैं। जबकि आठों कर्मों की कुल प्रकृतियाँ ५+९+२+२८+४+९३+२+५=१४८ हैं। इनमें पाँच बन्धन और पाँच संघात तो शरीर के साथी हैं- अर्थात् यदि औदारिक शरीर का बन्ध होगा तो औदारिक बन्धन और औदारिक संघात का अवश्य बन्ध होगा। इसलिए बन्ध प्रकृतियों में पाँच शरीरों का ही ग्रहण किया है। अतः पाँच बन्धन और पाँच संघात ये १० प्रकृतियाँ कम हुईं और वर्ण गन्ध आदि के बीस भेदों में से केवल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन चार को ही ग्रहण किया है, इससे १६ प्रकृतियाँ ये कम हुई। तथा दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों में से केवल एक मिथ्यात्व का ही बन्ध होता है। अतः दो ये कम हुई। इस तरह अट्ठाईस प्रकृतियों के कम होने से बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० ही रहती हैं। इस तरह बन्ध का वर्णन समाप्त हुआ। ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे अष्टमोऽध्यायः ॥८॥
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