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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. अनेक जगह परिणाम शब्द आया है। अत: उसका लक्षण कहते हैं- तद्भावः परिणामः॥४२॥ अर्थ - धर्मादि द्रव्य जिस स्वरूप से होते हैं, उसे तद्भाव कहते हैं और उस तद्भाव का ही नाम परिणाम है। English - The condition of a substance is a mode. विशेषार्थ - जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, वही परिणाम है। जैसे धर्म द्रव्य का स्वभाव जीव पुद्गलों की गति में निमित्त होना है। वही तद्भाव है। धर्म द्रव्य का परिणमन सदा उसी रूप में होता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों में भी समझ लेना चाहिए। ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे पंचमोऽध्यायः ॥५॥
  2. अब गुण का लक्षण कहते हैं- द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥४१॥ अर्थ - जो द्रव्य के आश्रय से रहते हैं तथा जिनमें अन्य गुण नहीं रहते, उन्हें गुण कहते हैं। English - Those, which have substance as their substratum and which are not themselves the substratum of other attributes, are qualities. शंका - गुण का यह लक्षण पर्याय में भी पाया जाता है; क्योंकि पर्याय भी द्रव्य के आश्रय से ही रहती है और उसमें गुण भी नहीं रहते। अत: यह लक्षण ठीक नहीं है ? समाधान - गुण तो सदा ही द्रव्य के आश्रय से रहता है, कभी भी द्रव्य को नहीं छोड़ता। किन्तु पर्याय अनित्य होती है, एक जाती है दूसरी आती है। अतः गुण का उक्त लक्षण पर्याय में नहीं रहता।
  3. अब व्यवहार काल का प्रमाण बतलाते हैं- सोऽनन्तसमयः ॥४०॥ अर्थ - वह काल द्रव्य अनन्त समय वाला है - अर्थात् काल के समयों का अन्त नहीं है। English - It (conventional time) consists of infinite instants. One instant is the time taken by a slow-moving elementary particle of matter to move from one space point to the adjacent space point. विशेषार्थ - भूत, भविष्यत् और वर्तमान-ये व्यवहार काल के भेद हैं। सो वर्तमान काल का प्रमाण तो एक समय है; क्योंकि एक समय के समाप्त होने पर वह भूत हो जाता है और जो दूसरा समय उसका स्थान लेता है, वह वर्तमान कहलाता है। किन्तु भूत और भविष्यत् काल अनन्त समय वाला है। इसी से व्यवहार काल को अनंत समय वाला कहा है। अथवा यह सूत्र मुख्य काल का ही प्रमाण बतलाता है; क्योंकि एक कालाणु अनंत पर्यायों की वर्तना में कारण है इसलिए उपचार से कालाणु को अनंत कह सकते हैं। काल के सबसे सूक्ष्म अंश का नाम समय है। और समयों के समूह का नाम आवली, घड़ी आदि हैं। वह सब व्यवहार काल है, जो मुख्य काल द्रव्य की ही पर्याय रूप है।
  4. अब कालद्रव्य को कहते हैं- कालश्च ॥३९॥ अर्थ - काल भी द्रव्य है। English - Time also is a substance. विशेषार्थ - ऊपर द्रव्य के दो लक्षण बतलाये हैं। वे दोनों लक्षण काल द्रव्य में पाये जाते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है- पहला लक्षण है। कि जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाये जावें, वह द्रव्य है। सो काल द्रव्य में ध्रौव्य पाया जाता है क्योंकि काल का स्वभाव सदा स्थायी है। तथा उत्पाद और व्यय पर के निमित्त से भी होते हैं और स्वनिमित्तक भी होते हैं; क्योंकि काल द्रव्य प्रति समय अनन्त पदार्थों के परिणमन में कारण है, अतः कार्य के भेद से कारण में भी प्रतिसमय भेद होना जरूरी है, यह परनिमित्तक उत्पाद व्यय है। तथा काल में अगुरुलघु नाम के गुण भी पाये जाते हैं। उनकी वृद्धि हानि होने की अपेक्षा से उसमें स्वयं भी उत्पाद, व्यय प्रतिसमय होता रहता है। दूसरा लक्षण है, जो गुण-पर्याय वाला हो, वह द्रव्य है। सो काल द्रव्य में सामान्य गुण भी पाये जाते हैं और विशेष गुण भी पाये जाते हैं। काल द्रव्य समस्त द्रव्यों की वर्तना में हेतु है। यह उसका विशेष गुण है; क्योंकि यह गुण अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं पाया जाता। और अचेतनपना, अमूर्तिकपना, सूक्ष्मपना, अगुरुलघुपना आदि सामान्य गुण हैं, जो अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं। उत्पाद-व्ययरूप पर्याय भी काल में होती है। अत: दोनों लक्षणों से सहित होने के कारण काल भी द्रव्य है। यह काल द्रव्य अमूर्तिक है, क्योंकि उसमें रूप, रस वगैरह गुण नहीं पाये जाते। तथा ज्ञान, दर्शन आदि गुणों से रहित होने से अचेतन है। किन्तु काल द्रव्य बहु प्रदेशी नहीं है; क्योंकि लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु रत्नों की राशि की तरह अलग-अलग स्थित है। वे आपस में मिलते नहीं है। अतः काल द्रव्य काय नहीं है, और प्रत्येक कालाणु एक-एक काल द्रव्य है। इससे काल द्रव्य एक नही है, किन्तु जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं, उतने ही काल द्रव्य हैं। अतः काल द्रव्य असंख्यात हैं और वे निष्क्रिय हैं-एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर नहीं जाते, जहाँ के तहाँ ही बने रहते हैं।
  5. अब दूसरी तरह से द्रव्य का लक्षण कहते हैं- गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥३८॥ अर्थ - जिसमें गुण और पर्याय पायी जाती है, उसे द्रव्य कहते हैं। English - That which has qualities and modes is a substance. विशेषार्थ - द्रव्य में अनेक परिणमन होने पर भी जो द्रव्य से भिन्न नहीं होता, सदा द्रव्य के साथ ही रहता है, वह गुण है। इसी से गुण को अन्वयी कहा गया है। और जो द्रव्य में आती जाती रहती है, वह पर्याय है। इसी से पर्याय को व्यतिरेकी कहा है। गुण-पर्याय रूप ही द्रव्य है। जैसे ज्ञान आदि जीव के गुण हैं और रूप आदि पुद्गल के गुण हैं। न ज्ञान जीव को छोड़कर रह सकता है और न रूप रस आदि गुण पुद्गल को छोड़कर रह सकते हैं। हाँ, ज्ञान गुण में भी परिणमन होता है, जैसे घटज्ञान, पटज्ञान। और रूप आदि में भी परिणमन होता है। यह परिणमन ही पर्याय है। पहले द्रव्य का लक्षण सत् कहा था और सत् का लक्षण ‘‘उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से जो युक्त हो वही सत् है' ऐसा कहा था। यहाँ गुण पर्यायवान को द्रव्य कहा है। इन दोनों लक्षणों में कोई अन्तर नहीं है। एक के कहने से दूसरे का अन्तर्भाव हो जाता है; क्योंकि गुण ध्रुव होते हैं और पर्याय उत्पाद-विनाशशील होती है। यदि द्रव्य में गुण न हों तो वह ध्रौव्य युक्त नहीं हो सकता और यदि पर्याय न हों तो वह उत्पाद-व्यय युक्त नहीं हो सकता। अतः जब हम कहते हैं कि द्रव्य ध्रौव्ययुक्त है तो उसका मतलब होता है कि द्रव्य गुणवान है। और जब उसे उत्पाद-विनाश वाला कहते हैं तो उसका मतलब होता है कि वह पर्यायवान है। अतः दोनों लक्षण प्रकारान्तर से एक ही बात को कहते हैं। यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि द्रव्य, गुण और पर्याय की सत्ता जुदी जुदी नहीं है, किन्तु सबका अस्तित्व अथवा सत्ता एक ही है, जो द्रव्य के नाम से कही जाती है। इसी सत् को द्रव्य कहा है।
  6. अब यह शंका होती है कि अधिक गुण वालों का ही बंध क्यों बतलाया, समान गुण वालों का क्यों नहीं बतलाया ? अत: उसके समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च ॥३७॥ अर्थ - बन्ध होने पर अधिक गुण वाला परमाणु अपने से कम गुण वाले परमाणु को अपने रूप कर लेता है। English - In the process of combining the higher degrees transform the lower ones. विशेषार्थ - जब दो परमाणु अपनी-अपनी पूर्व अवस्था को छोड़कर एक तीसरी अवस्था को अपनाते हैं, तभी स्कन्ध बनता है। यदि ऐसा न हो और जैसे वस्त्र में काले और सफेद धागे आपस में संयुक्त होकर भी जुदेजुदे ही रहते हैं, वैसे ही यदि परमाणु भी रहें तो कभी भी स्कन्ध नहीं बन सकता। अतः बंध होने पर अधिक गुण वाला परमाणु अपने से कम गुण वाले परमाणु को अपने रूप कर लेता है। इससे दोनों मिलकर एक हो जाते हैं और उनके रूप, रस आदि गुणों में भी परिवर्तन होकर स्कन्ध बन जाता है। इसी से बंधने वाले परमाणुओं में दो गुण का अन्तर रखा है। इससे अधिक अन्तर होने से एक परमाणु दूसरे में लय तो हो सकता है। किन्तु फिर तीसरी अवस्था पैदा न हो सकती; क्योंकि अल्प गुण वाला अपने से अधिक गुण वाले पर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकता। इसी तरह अन्तर न रखने से भी दोनों समान बलशाली होने से एक दूसरे को अपने रूप न परिणमा कर अलग-अलग ही रह जाते।
  7. उक्त कथन से यह सिद्ध हुआ कि विषम गुण वाले सभी सजातीय विजातीय परमाणुओं का बन्ध होता है। अतः उसमें नियम बताते हैं- द्वयधिकादिगुणानां तु ॥३६॥ अर्थ - जिनमें दो गुण अधिक होते हैं, उन्हीं परमाणुओं का परस्पर में बन्ध होता है। English - But there is a combination between the elementary particles having different degrees of properties. विशेषार्थ - सजातीय हो अथवा विजातीय हो, जिस परमाणु में स्निग्धता के दो गुण होते हैं, उस परमाणु का एक गुण स्निग्धता वाले अथवा दो गुण स्निग्धता वाले अथवा तीन गुण स्निग्धता वाले परमाणुओं के साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु जिसमें चार गुण स्निग्धता के होते हैं, उसके साथ बन्ध होता है। तथा उस दो गुण स्निग्धता वाले परमाणु का पाँच, छह, सात, आठ, नौ, संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुण स्निग्धता वाले परमाणु के साथ भी बन्ध नहीं होता। इसी तरह तीन गुण स्निग्धता वाले परमाणु का पाँच गुण स्निग्धता वाले परमाणु के साथ ही बन्ध होता है, न उससे कम गुण वालों के साथ बन्ध होता है और न उससे अधिक गुण वाले परमाणुओं के साथ बन्ध होता है। तथा दो गुण रूक्षता वाले परमाणु का चार गुण रूक्षता वाले परमाणु के साथ ही बन्ध होता है, उससे कम या अधिक गुण वाले के साथ नहीं होता। इसी तरह तीन गुण रूक्ष परमाणु का पाँच गुण रूक्षता वाले परमाणु के साथ ही बन्ध होता है, उससे कम या अधिक के साथ बन्ध नहीं होता। यह तो हुआ सजातीयों का बंध। इसी तरह भिन्न जातियों में भी लगा लेना चाहिए। अर्थात् दो गुण स्निग्धता वाले परमाणु का चार गुण रूक्षता वाले परमाणु के साथ ही बंध होता है। तथा तीन गुण स्निग्धता वाले परमाणु का पाँच गुण रूक्षता वाले परमाणु के साथ ही बंध होता है, उससे कम या अधिक गुण वाले के साथ बंध नहीं होता। ‘न जघन्यगुणानाम्' इस सूत्र से लगाकर आगे के सूत्रों में जो बंध का निषेध चला आता था, उसका निवारण करने के लिए इस सूत्र में ‘तु' पद लगा दिया है, जो निषेध को हटाकर बंध का विधान करता है।
  8. इस तरह जघन्य गुण वाले परमाणुओं के सिवा शेष सभी परमाणुओं का बन्ध प्राप्त हुआ। अतः उनमें भी और नियम करते हैं- गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥३५॥ अर्थ - गुणों की समानता होने पर सजातीय परमाणुओं का बन्ध नहीं होता। English - There is no combination between equal degrees of the same property विशेषार्थ - यदि बन्धने वाले दो परमाणु सजातीय हों और उनमें बराबर बराबर अविभागी प्रतिच्छेद हों, तो उनका भी बन्ध नहीं होता। जैसे दो गुण स्नेह वाले परमाणु का दो गुण स्नेह वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। दो गुण रूक्षता वाले परमाणु का दो गुण रूक्षता वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। इसी तरह दो गुण रूक्षता वाले परमाणु का दो गुण स्निग्धता वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। हाँ, यदि गुणों में समानता न हो तो सजातीयों का भी बन्ध होता है। आशय यह है कि स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः' इस सूत्र से केवल स्निग्धता और रूक्षता गुण वाले परमाणुओं का ही बन्ध सिद्ध होता है, स्निग्धता वालों का या रूक्षता वालों का बन्ध सिद्ध नहीं होता। अतः गुणों में विषमता होने पर सजातीयों का भी बन्ध बतलाने के लिए यह सूत्र बनाया गया है।
  9. उक्त कथन से सभी परमाणुओं में बन्ध की प्राप्ति हुई। अतः जिन परमाणुओं का बंध नहीं होता, उनका कथन करते हैं- न जघन्यगुणानाम् ॥३४॥ अर्थ - जघन्य गुण वाले परमाणुओं का बन्ध नहीं होता। English - There is no combination between the elementary particles having only the lowest degree of these two properties with the other elementary particles. विशेषार्थ - यहाँ गुण से मतलब अविभागी प्रतिच्छेद से है। अतः जिन परमाणुओं में स्निग्धता अथवा रूक्षता का एक अविभागी प्रतिच्छेद रह जाता है, उनका बन्ध नहीं होता।
  10. इसके समाधान के लिए आगे का कथन करते हैं- स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः ॥३३॥ अर्थ - स्निग्धता अर्थात् चिक्कणपना और रुक्षता अर्थात् रूखापना। इन दोनों के कारण ही पुद्गल परमाणुओं का परस्पर में बन्ध होता है। English - Combination of elementary particles of matter takes place by virtue of greasy (sticky) and dry (roughy) properties associated with them. विशेषार्थ - पुद्गलों में स्नेह और रूक्ष गुण पाये जाते हैं। किन्हीं परमाणुओं में रूक्ष गुण होता है और किन्हीं परमाणुओं में स्नेह गुण होता है। स्नेह गुण के अविभागी प्रतिच्छेद बहुत से होते हैं। इसी तरह रूक्ष गुण के अविभागी प्रतिच्छेद भी बहुत से होते हैं। शक्ति के सबसे जघन्य अंश को अविभागी प्रतिच्छेद कहते हैं। एक-एक परमाणु में अनन्त अविभागी प्रतिच्छेद होते हैं और वे घटते बढ़ते रहते हैं। किसी समय अनन्त अविभागी प्रतिच्छेद से घटते घटते असंख्यात अथवा संख्यात अथवा और भी कम अविभागी प्रतिच्छेद रह जाते हैं। और कभी बढ़कर संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त अविभागी प्रतिच्छेद हो जाते हैं। इस तरह परमाणुओं में स्निग्धता और रूक्षता हीन या अधिक पायी जाती है, जिसका अनुमान हम स्कन्धों को देखकर कर सकते हैं। जैसे, जल से बकरी के दूध, घी में; बकरी के दूध, घी से गौ के दूध, घी में; गौ के दूध, घी से भैंस के दूध, घी में और भैंस के दूध, घी से ऊँटनी के दूध, घी में चिकनाई अधिक पायी जाती है। इसी तरह धूल से रेत में और रेत से बजरी में रूखापन अधिक पाया जाता है। वैसे ही परमाणुओं में भी चिकनाई और रूखाई कमती बढ़ती होती है। वही पुद्गलों के बन्ध में कारण है।
  11. इसके समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥३२॥ अर्थ - मुख्य को अर्पित कहते हैं और गौण को अनर्पित कहते हैं। मुख्यता और गौणता से ही अनेक धर्म वाली वस्तु का कथन सिद्ध होता है। English - The contradictory characteristics of a substance are established from different points of view. विशेषार्थ - वस्तु में अनेक धर्म हैं। उन अनेक धर्मों में से वक्ता का प्रयोजन जिस धर्म से होता है, वह धर्म मुख्य हो जाता है। और प्रयोजन न होने से बाकी के धर्म गौण हो जाते हैं। किन्तु किसी एक धर्म की प्रधानता से कथन करने का यह मतलब नहीं लेना चाहिए कि वस्तु में अन्य धर्म हैं। ही नहीं। अत: किसी धर्म की प्रधानता और किसी धर्म की अप्रधानता से ही वस्तु की सिद्धि होती है। जैसे, एक देवदत्त नाम के पुरुष में पिता, पुत्र, भाई, जमाई, मामा, भानजा आदि अनेक सम्बन्ध भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से पाये जाते हैं। पुत्र की अपेक्षा वह पिता है। पिता की अपेक्षा पुत्र है। भाई की अपेक्षा भाई है। श्वसुर की अपेक्षा जमाई है। भानजे की अपेक्षा मामा है। और मामा की अपेक्षा भानजा है। इसमें कोई भी विरोध नहीं है। इसी तरह वस्तु सामान्य की अपेक्षा नित्य है और विशेष की अपेक्षा अनित्य है। जैसे घट, घटपर्याय की अपेक्षा अनित्य है, क्योंकि घड़े के फूट जाने पर घटपर्याय नष्ट हो जाती है। और मिट्टी की अपेक्षा नित्य है; क्योंकि घड़े के फूट जाने पर भी मिट्टी कायम रहती है। इसी तरह सभी वस्तुओं के विषय में समझ लेना चाहिए। ऊपर यह बतलाया है कि स्कन्धों की उत्पत्ति भेद, संघात और भेद-संघात से होती है। इसमें यह शंका होती है कि दो परमाणुओं का संयोग हो जाने से ही क्या स्कन्ध बन जाता है? इसका उत्तर यह है कि दो परमाणुओं का संयोग हो जाने पर भी जब तक उनमें रसायनिक प्रक्रिया के द्वारा बन्ध नहीं होता, जो दोनों को एकरूप कर दे, तब तक स्कन्ध नहीं बन सकता। इस पर पुनः यह शंका होती है। कि अनेक पुद्गलों का संयोग होता देखा जाता है, परन्तु उनमें किन्हीं का परस्पर में बन्ध होता है और किन्हीं का बन्ध नहीं होता, इसका क्या कारण है ? इसके समाधान के लिए आगे का कथन करते हैं-
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