Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

Vidyasagar.Guru

Administrators
  • Posts

    17,719
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    591

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by Vidyasagar.Guru

  1. अब कर्मों की पुण्य प्रकृतियों को बतलाते हैं- सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥२५॥ अर्थ - सातावेदनीय, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु ये तीन आयु, एक उच्च गोत्र और नामकर्म सैंतीस प्रकृतियाँ ये ब्यालीस पुण्य प्रकृतियाँ हैं। नामकर्म की सैंतीस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं- मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, देव गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर । ये सब पुण्य प्रकृतियाँ हैं। English - The good variety of feeling-producing karmas and the auspicious life, name and status-determining karmas constitute merit (Punya).
  2. अब प्रदेश बन्ध को कहते हैं- नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥२४॥ अर्थ - इस सूत्र में प्रदेश बन्ध का स्वरूप बतलाते हुए बंधने वाले कर्मप्रदेशों के बारे में इतनी बातें बतलाई हैं- वे कर्मप्रदेश किसके कारण हैं। ? कब बंधते हैं ? कैसे बंधते हैं ? उनका स्वभाव कैसा है ? बंधने पर वे रहते कहाँ हैं ? और उनका परिमाण कितना होता है ? प्रत्येक प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया है- वे कर्मप्रदेश ज्ञानावरण आदि सभी कर्म प्रकृतियों के कारण हैं। अर्थात् जैसे ही वे बंधते हैं। वैसे ही आयु को छोड़कर शेष सात कर्म रूप हो जाते हैं, यदि उस समय आयु कर्म का भी बन्ध होता है तो आठों कर्म रूप हो जाते हैं। दूसरा प्रश्न है कि कब बंधते हैं ? उसका उत्तर है कि सब भवों में बंधते हैं। ऐसा कोई भव नहीं, और एक भव में ऐसा कोई क्षण नहीं जब कर्मबन्ध न होता हो। तीसरा प्रश्न है कि कैसे बंधते हैं ? उसका उत्तर है- योगविशेष के निमित्त से बंधते हैं। योग का वर्णन छठे अध्याय में हो चुका है, वही कर्मों के बन्ध में निमित्त है। चौथा प्रश्न है कि उनका स्वभाव कैसा है ? उसका उत्तर है कि वे सूक्ष्म होते हैं- स्थूल नहीं होते तथा जिस आकाश प्रदेश में आत्मप्रदेश रहते हैं, उसी आकाश प्रदेश में कर्म योग्य पुद्गल भी ठहर जाते हैं। पाँचवां प्रश्न है कि वे किस आधार से रहते हैं ? इसका उत्तर है कि कर्मप्रदेश आत्मा के किसी एक ही भाग में आकर नहीं रहते। किन्तु आत्मा के समस्त प्रदेशों में ऐसे घुल मिल जाते हैं, जैसे दूध में पानी । छठवां प्रश्न है। कि उनका परिमाण कितना होता है ? तो उत्तर है कि अनन्तानन्त परमाणु प्रतिसमय बंधते रहते हैं। सारांश यह है कि एक आत्मा के असंख्यात प्रदेश होते हैं। प्रत्येक प्रदेश में प्रतिसमय अनन्तानन्त प्रदेशी पुद्गल-स्कन्ध बन्ध रूप होते रहते हैं। यही प्रदेश-बन्ध है। English - The karmic molecules of infinite times infinite space-points always pervade in a subtle form the entire space-points of every soul in every birth. And these are absorbed by the soul because of its activity.
  3. अब यह बतलाते हैं कि जो कर्म उदय में आकर अपना तीव्र या मन्द फल देता है, फल देने के बाद भी वह कर्म आत्मा से चिपटा रहता है या छूट जाता है- ततश्च निर्जरा ॥२३॥ अर्थ - फल दे चुकने पर कर्म की निर्जरा हो जाती है; क्योंकि स्थिति पूरी हो चुकने पर कर्म आत्मा के साथ एक क्षण भी चिपटा नहीं रह सकता। आत्मा से छूट कर वह किसी और रूप से परिणमन कर जाता है, इसी का नाम निर्जरा है। English - After fruition (enjoyment), the karmas fall off or disappear. This is called savipak nirjara. The karmas can also be made to rise and disassociate from the soul through penance and this is called avipak nirjara. विशेषार्थ - निर्जरा दो प्रकार की होती है - सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। क्रम से उदय काल आने पर कर्म का अपना फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है और जिस कर्म का उदय काल तो नहीं आया, किन्तु तपस्या वगैरह के द्वारा जबरदस्ती से उसे उदय में लाकर जो खिराया जाता है, वह अविपाक निर्जरा है। जैसे, आम पेड़ पर लगा-लगा जब स्वयं ही पक कर टपक जाता है, तो वह सविपाक है। और उसे पेड़ से तोड़ कर पाल में दबाकर जो जल्दी पका लिया जाता है, वह अविपाक है।
  4. आगे इसी बात को कहते हैं- स यथानाम ॥२२॥ अर्थ - कर्म का जैसा नाम है, वैसा ही उसका फल है। जैसे ज्ञानावरण का फल ज्ञानशक्ति को ढांकना है, दर्शनावरण का फल दर्शनशक्ति को ढांकना है। इसी तरह सभी कर्मों और उनके भेदों का नाम सार्थक है। और नाम के अनुसार ही उनका फल भी होता है। English - The nature of fruition is according to the names of the karmas.
  5. इस तरह स्थितिबन्ध को कहकर अब अनुभवबन्ध को कहते हैं- विपाकोऽनुभवः ॥२१॥ अर्थ - विशिष्ट अथवा नाना प्रकार के पाक यानि उदय को विपाक कहते हैं और विपाक को ही अनुभव कहते हैं। English - Fruition is the ripening or maturing of karmas. विशेषार्थ - छठे अध्याय में बतलाया है कि कषाय की तीव्रता या मन्दता के होने से कर्म के आस्रव में विशेषता होती है। और उसकी विशेषता से कर्म के उदय में अन्तर पड़ता है। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के निमित्त से भी कर्म के फल देने में विविधता होती है। अतः कर्म जो अनेक प्रकार का फल देता है, उस फल देने का नाम ही अनुभव या अनुभाग है। शुभ परिणामों की अधिकता होने से शुभ प्रकृतियों में अधिक रस पड़ता है और अशुभ प्रकृतियों में मन्द रस पड़ता है। तथा अशुभ परिणामों की अधिकता होने से अशुभ प्रकृतियों में अधिक रस पड़ता है और शुभ प्रकृतियों में मन्द रस पड़ता है। इस तरह परिणामों की विचित्रता से अनुभाग बन्ध में भी अन्तर पड़ता है। कर्मों का यह अनुभाग दो रूप से होता है-एक स्वमुख से और दूसरे परमुख से। आठों मूल कर्मों का अनुभाग स्वमुख से ही होता है। अर्थात् प्रत्येक कर्म अपने रूप में ही अपना फल देता है, एक उत्तरकर्म दूसरे उत्तरकर्म रूप होकर एक जाति की हैं, वे आपस में अदल-बदल कर भी फल देती हैं। जैसे असातावेदनीय सातावेदनीय रूप से भी फल दे सकता है। मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण रूप से उदय में आ सकता है। इसको परमुख से फल देना कहते हैं। परन्तु कुछ उत्तर प्रकृतियाँ भी ऐसी हैं जो स्वमुख से ही अपना फल देती है। जैसे, दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय रूप से फल नहीं देता और न चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय रूप से फल देता है। इसी तरह चारों आयु भी अपने रूप ही फल देती हैं, परस्पर में अदल-बदल कर फल नहीं देती। अर्थात् किसी ने नरकायु का बन्ध किया हो और उसका फल मनुष्यायु या तिर्यञ्चायु के रूप में मिले, यह सम्भव नहीं है। उसे नरक में ही जाना होगा।
  6. अब शेष पाँच कर्मों की जघन्य स्थिति कहते हैं- शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥२०॥ अर्थ - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयु और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। इनमें से मोहनीय की जघन्य स्थिति नौवे गुणस्थान में ही बंधती है। आयु की जघन्य स्थिति संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यञ्चों के बंधती है। और शेष तीन कर्मों की जघन्य स्थिति सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में बंधती हैं। English - The minimum duration of the rest is one antarmuhurta (one antarmuhurta is almost anything less than one muhurta).
  7. अब नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति कहते हैं- नामगोत्रयोरष्टौ ॥१९॥ अर्थ - नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है। यह भी सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में ही बंधती है। English - The minimum duration of the name-karma and the status-determining karmas is eight muhurtas.
  8. अब जघन्य स्थिति-बन्ध को बतलाते हुए वेदनीय की जघन्य स्थिति बतलाते हैं- अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ अर्थ - वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है। यह स्थिति सूक्ष्मसाम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में ही बंधती है। English - The minimum duration of the feeling-producing karma is twelve muhurtas (one muhurta is equal to 48 minutes).
  9. अब आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं- त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ अर्थ- आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर प्रमाण है। यह स्थिति संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक के ही होती है। English - Thirty-three sagaras is the maximum duration of life karma.
  10. अब नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं- विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ अर्थ - नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। यह उत्कृष्ट स्थिति भी सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीव के ही होती है। English - Twenty Sagara kotikoti is the maximum duration of the name-karma and the status-determining karma.
  11. अब मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं- सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ अर्थ- मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है। यह उत्कृष्ट स्थिति भी सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्यादृष्टिजीव के ही होती है। English - Seventy sagara koti-koti is the maximum duration of the deluding karma.
  12. प्रकृतिबन्ध के भेद बतला कर अब स्थितिबन्ध के भेद बतलाते हैं। स्थिति दो प्रकार की है-उत्कृष्ट और जघन्य; पहले कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं- आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥१४॥ अर्थ - आदि के तीन अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटा-कोटी सागर प्रमाण है। यह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीव के होता है। English - The maximum duration of the knowledge-obscuring, perception obscuring, feeling producing and obstructive karmas is thirty Sagara kotikoti.
  13. अब अन्तराय कर्म के भेद कहते हैं- दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥१३॥ अर्थ - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये पाँच भेद अन्तराय कर्म के हैं। जिसके उदय से देने की इच्छा होते हुए भी नहीं देता है, वह दानान्तराय है। लाभ की इच्छा होते हुए भी तथा प्रयत्न करने पर भी जिसके उदय से लाभ नहीं होता है, वह लाभान्तराय है। भोग और उपभोग की चाह होते हुए भी जिसके उदय से भोग, उपभोग नहीं कर सकता, वह भोगान्तराय और उपभोगान्तराय है। उत्साह करने पर भी जिसके उदय से उत्साह नहीं हो पाता, वह वीर्यान्तराय है ॥१३॥ English - The obstructive karmas are of five kinds, obstructing the charity, gain, enjoyment of consumable things, enjoyment of non-consumable things and potency.
  14. अब गोत्र कर्म की प्रकृतियाँ कहते हैं- उच्चैर्नीचैश्च ॥१२॥ अर्थ - गोत्र कर्म के दो भेद हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र। जिसके उदय से लोक में अपने सदाचार के कारण पूज्य कुल में जन्म होता है, उसे उच्च गोत्र कहते हैं और जिसके उदय से निन्दनीय आचरण वाले कुल में जन्म हो, वह नीच गोत्र है। English - The status determining karmas comprise of the high and the low.
  15. अब नामकर्म की प्रकृतियाँ कहते हैं- गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्ववास-विहायोगतयः प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वरशुभ-सूक्ष्म-पर्याप्ति-स्थिरादेययशः कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥११॥ अर्थ - गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोगति तथा प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, सुस्वर, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय, यश:कीर्ति और इन दसों के प्रतिपक्षी अर्थात् साधारण शरीर, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अशुभ, बादर, अपर्याप्ति, अस्थिर, अनादेय और अयश:कीर्ति एवं तीर्थङ्कर ये बयालीस भेद नामकर्म के हैं। इन्हीं के अवान्तर भेदों को मिलाने से नामकर्म के तिरानवें भेद हो जाते हैं। English - The name (physique-making) karmas comprise the state of existence, the class, the body, the chief and secondary parts, formation, binding (union), molecular interfusion, structure, joint, touch, taste, odor, color, movement after death, neither heavy body falls down nor light body flies away, self-annihilation, annihilation by others, emitting warm splendour, emitting cool lustre, respiration, gait, individual body, mobile being, amiability, a melodious voice, beauty of form, minute body, complete development of the organs, firmness, lustrous body, glory and renown, and the opposites of these (commencing from individual body), and Tirthankaratva. विशेषार्थ - जिसके उदय से जीव दूसरे भव में जाता है, उसे गति नामकर्म कहते हैं। उसके चार भेद हैं- नरक गति, तिर्यग्गति, मनुष्य गति और देव गति। जिसके उदय से जीव के नारक भाव हों वह नरक गति है। ऐसा ही अन्य गतियों का भी स्वरूप जानना। उन नरकादि गतियों में अव्यभिचारी समानता के आधार पर जीवों का एकीकरण, जिसके उदय से हो वह जाति नामकर्म है। उसके पाँच भेद हैं एकेन्द्रिय जाति नाम, दो इन्द्रिय जाति नाम, तेइन्द्रिय जाति नाम, चौइन्द्रिय जाति नाम और पंचेन्द्रिय जाति नाम। जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है, वह एकेन्द्रिय जाति नाम है। इसी तरह शेष में भी लगा लेना। जिसके उदय से जीव के शरीर की रचना होती है, वह शरीर नाम है। उसके पाँच भेद हैं- औदारिक शरीर नाम, वैक्रियिक शरीर नाम, आहारक शरीर नाम, तैजस शरीर नाम और कार्मण शरीर नाम। जिसके उदय से औदारिक शरीर की रचना हो. वह औदारिक शरीर नाम कर्म है। इस तरह शेष को भी समझ लेना। जिसके उदय से अंग उपाँग का भेद प्रकट हो, वह अंगोपांग नामकर्म है। उसके तीन भेद हैं- औदारिक शरीर अंगोपांग नाम, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग नाम, आहारक शरीर अंगोपांग नाम। जिसके उदय से अंग उपांग की रचना हो, वह निर्माण नामकर्म है। इसके दो भेद हैं- स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । निर्माण नामकर्म जाति के उदय के अनुसार चक्षु आदि की रचना अपने-अपने स्थान में तथा अपने अपने प्रमाण में करता है। शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहण किये हुए पुद्गलों का परस्पर में मिलन, जिस कर्म के उदय से होता है, वह बन्धन नामकर्म है। जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों के प्रदेशों का परस्पर में छिद्र रहित एकमेकपना होता है, वह संघात नाम कर्म है। जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की आकृति बनती है, वह संस्थान नामकर्म है। उसके छह भेद हैं-समचतुरस्त्र संस्थान, न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, हुंडक संस्थान। जिसके उदय से ऊपर, नीचे तथा मध्य में शरीर के अवयवों की समान विभाग लिए, रचना होती है, उसे समचतुरस्र संस्थान नाम कहते हैं। जिसके उदय से नाभि के ऊपर का भाग भारी और नीचे का पतला होता है, जैसे वट का वृक्ष, उसे न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान नाम कहते हैं। स्वाति यानि बाम्बी की तरह नाभि से नीचे का भाग भारी और ऊपर का दुबला जिस कर्म के उदय से हो, वह स्वाति संस्थान नाम है। जिसके उदय से कुबड़ा शरीर हो, वह कुब्जक संस्थान नाम है। जिसके उदय से बौना शरीर हो, वह वामन संस्थान नाम है। जिसके उदय से विरूप अंगोपांग हों, वह हुंडक संस्थान नाम है। जिसके उदय से हड्डियों के बन्धन में विशेषता हो, वह संहनन नामकर्म है। उसके भी छह भेद हैं- वज्रवृषभनाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलित संहनन और असंप्राप्तासृपाटिका संहनन नाम। जिसके उदय से वृषभ यानि वेष्टन, नाराच यानि कीलें और संहनन यानि हड्डियाँ वज्र की तरह अभेद्य हों, वह वज्रवृषभ नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से कील और हड्डियाँ वज्र की तरह हों और वेष्टन सामान्य हो, वह वज्रनाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ों के जोड़ों में कीलें हों वह नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ों की संधियाँ अर्ध कीलित हों, वह अर्धनाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ परस्पर में ही कीलित हों, अलग से कील न हो, वह कीलित संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ केवल नस, स्नायु वगैरह से बन्धे हों, वह असंप्राप्तासृपाटिका संहनन है। जिसके उदय से शरीर में स्पर्श प्रकट हो, वह स्पर्श नामकर्म है। उसके आठ भेद हैं-कर्कश नाम, मृदु नाम, गुरु नाम, लघु नाम, स्निग्ध नाम, रूक्ष नाम, शीत नाम, उष्ण नाम। जिसके उदय से शरीर में रस प्रकट हो, वह रस नामकर्म है। उसके पाँच भेद हैं-तिक्त नाम, कटुक नाम, कषाय नाम, आम्ल नाम, मधुर नाम। जिसके उदय से शरीर में गन्ध प्रकट हो, वह गन्ध नाम है। उसके दो भेद हैं- सुगन्ध नाम और दुर्गन्ध नामकर्म। जिसके उदय से शरीर में वर्ण यानि रंग प्रकट हो, वह वर्ण नाम है। उसके पाँच भेद हैं-कृष्ण वर्णनाम, शुक्ल वर्णनाम, नील वर्णनाम, रक्त वर्णनाम और हरित वर्णनाम। जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार बना रहे, वह आनुपूर्व्य नाम कर्म है। उसके चार भेद हैं-नरक गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम और देवगति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम। जिस समय मनुष्य या तिर्यञ्च मर करके नरक गति की ओर जाता है, तो मार्ग में उसकी आत्मा के प्रदेशों का आकार वैसा ही बना रहता है, जैसा उसके पूर्व शरीर का आकार था, जिसे वह छोड़कर आया है। यह नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य नामकर्म का कार्य है। इसी तरह अन्य आनुपूर्वियों का कार्य जानना। आनुपूर्वी कर्म का उदय विग्रह गति में ही होता है। जिसके उदय से शरीर न तो लोहे के गोले की तरह भारी हो और न आक की रुई की तरह हल्का हो, वह अगुरुलघु नामकर्म है। जिसके उदय से जीव स्वयं ही अपना घात करके मर जाये, वह उपघात नामकर्म है। जिसके उदय से दूसरे के द्वारा चलाये गये शस्त्र आदि से अपना घात हो, वह परघात नामकर्म है। जिसके उदय से आतपकारी शरीर हो, वह आतप नामकर्म है। इसका उदय सूर्य के बिम्ब में जो बादर पर्याप्त पृथ्वी कायिक जीव होते हैं, उन्हीं के होता है। जिसके उदय से उद्योत रूप शरीर हो, वह उद्योत नामकर्म है। इसका उदय चन्द्रमा के बिम्ब में रहने वाले जीवों के तथा जुगनु वगैरह के होता है। जिसके उदय से उच्छ्वास हो, वह उच्छ्वास नामकर्म है। विहाय यानी आकाश। आकाश में गमन जिस कर्म के उदय से होता है वह विहायोगति नामकर्म है। इसके दो भेद हैं-प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति । एक जीव के ही भोगने योग्य होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। जिसके उदय से बहुत से जीवों के भोगने योग्य साधारण शरीर होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है। अर्थात् साधारण शरीर नामकर्म के उदय से एक शरीर में अनन्त जीव एक अवगाहना रूप होकर रहते हैं। वे सब एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक साथ ही मरते हैं और एक साथ ही श्वास वगैरह लेते हैं। उन्हें साधारण वनस्पति कहते हैं। जिसके उदय से द्वीन्द्रिय आदि में जन्म हो, उसे त्रसनामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से एकेन्द्रियों में जन्म हो, वह स्थावर नामकर्म है। जिसके उदय से दूसरे जीव अपने से प्रीति करें वह सुभग नामकर्म है। जिसके उदय से सुन्दर सुरूप होने पर भी दूसरे अपने से प्रीति न करें अथवा घृणा करें, वह दुर्भग नामकर्म है। जिसके उदय से स्वर मनोज्ञ हो, जो दूसरों को प्रिय लगे, वह सुस्वर नामकर्म है। जिसके उदय से अप्रिय स्वर हो, वह दुस्वर नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों, वह शुभ नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों, वह अशुभ नामकर्म है। जिसके उदय से सूक्ष्म शरीर हो जो किसी से न रुके, वह सूक्ष्म नामकर्म है। जिसके उदय से स्थूल शरीर हो, वह बादर नामकर्म है। जिसके उदय से आहार आदि पर्याप्ति की पूर्णता हो, वह पर्याप्ति नामकर्म है। उसके छह भेद हैं- आहार पर्याप्ति नाम, शरीर पर्याप्ति नाम, इन्द्रिय पर्याप्ति नाम, प्राणापान पर्याप्ति नाम, भाषा पर्याप्ति नाम और मनः पर्याप्ति नाम। जिसके उदय से पर्याप्तियों की पूर्णता नहीं होती, वह अपर्याप्ति नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर के धातु उपधातु स्थिर होते हैं जिससे कठिन श्रम करने पर भी शरीर शिथिल नहीं होता, वह स्थिर नामकर्म है। जिसके उदय से धातु उपधातु स्थिर नहीं होते, जिससे थोड़ा-सा श्रम करने से ही या जरा सी गर्मी-सर्दी लगने से ही शरीर म्लान हो जाता है, वह अस्थिर नामकर्म है। जिसके उदय से शरीर प्रभासहित हो वह आदेय नामकर्म है और जिसके उदय से शरीर प्रभा रहित हो, वह अनादेय नामकर्म है। जिसके उदय से संसार में जीव का यश फैले, वह यशःकीर्ति नामकर्म है और जिसके उदय से संसार में अपयश फैले, वह अयशस्कीर्ति नामकर्म है। जिसके उदय से अपूर्व प्रभावशाली अर्हन्त पद के साथ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन होता है, वह तीर्थंकर नामकर्म है। इस तरह नामकर्म की बयालीस प्रकृतियों के ही तिरानवे भेद हो जाते हैं।
  16. अब आयुकर्म के भेद कहते हैं- नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥१०॥ अर्थ - नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार आयुकर्म के भेद हैं। जिसके उदय से नरक में दीर्घकाल तक रहना पड़े वह नरकायु है। जिसके उदय से तिर्यञ्च योनि में रहना पड़े वह तिर्यगायु है। जिसके उदय से मनुष्य पर्याय में जन्म लेना पड़े, वह मनुष्यायु है और जिसके उदय से देवों में जन्म हो, वह देवायु है | English - The life-karmas determine the quantum of life in the states of existence as infernal beings, plants animals, immobile beings, human beings, and celestial beings.
  17. अब मोहनीय के भेद कहते हैं- दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयान्यकषायकषायौहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदाअनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलन-विकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमाया लोभाः ॥९॥ अर्थ - मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं- सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् -मिथ्यात्व। चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं- अकषाय वेदनीय और कषाय वेदनीय। अकषाय वेदनीय के नौ भेद हैं- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद। कषाय वेदनीय के सोलह भेद हैं- अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान-माया-लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ और संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ । इस तरह मोहनीय के अट्ठाईस भेद हैं। English - The deluding karmas are of twenty-eight kinds. These are the three subtypes of faith-deluding karmas - wrong belief, right belief and mixed belief, and twenty five subtypes of conduct-deluding karmas which cause and which are caused by the passions (sixteen types - each of the four passions i.e. anger, pride, deceitfulness, and greed is divided into four classes i.e. very intense, intense, mediocre and weak) and the quasi-passions (nine types - laughter, liking for certain objects, dislike for other objects, grief or sorrow, fear, disgust, hankering after men, hankering after women and hankering after both men and women). विशेषार्थ - दर्शन मोहनीय कर्म के तीन भेदों में से बंध तो केवल एक मिथ्यात्व का ही होता है। किंतु जब जीव को प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है, तो उस मिथ्यात्व के तीन भाग हो जाते हैं। अतः सत्ता और उदय की अपेक्षा दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं। जिसके उदय से जीव सर्वज्ञ के द्वारा कहे गये मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थ के श्रद्धान के प्रति उदासीन और हित अहित के विचार से शून्य मिथ्यादृष्टि होता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। जब शुभ परिणाम के द्वारा उस मिथ्यात्व की शक्ति घटा दी जाती है और वह आत्मा के श्रद्धान को रोकने में असमर्थ हो जाता है, तो उसे सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं और जब उसी मिथ्यात्व की शक्ति आधी शुद्ध हो पाती है, तब उसे सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं। उसके उदय से जीव के श्रद्धान और अश्रद्धान रूप मिले हुए भाव होते हैं, चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं अकषाय वेदनीय और कषाय वेदनीय। अकषाय का अर्थ ईर्ष्या कषाय यानि किञ्चित् कषाय है, इसी से अकषाय को नोकषाय भी कहते हैं, क्रोध आदि कषाय का बल पाकर ही हास्य आदि होते हैं, उसके अभाव में नहीं होते। इसलिए इन्हें अकषाय कहा जाता है। जिसके उदय से हँसी आती है, उसे हास्य कहते हैं। जिसके उदय से किन्हीं विषयों में आसक्ति होती है, उसे रति कहते हैं। जिसके उदय से, किन्हीं विषयों में द्वेष होता है, उसे अरति कहते हैं। जिसके उदय में रंज होता है, उसे शोक कहते हैं। जिसके उदय से डर लगता है, उसे भय कहते हैं। जिसके उदय से जीव अपने दोषों को ढांकता है और दूसरों को दोष लगाता है, उसे जुगुप्सा कहते हैं। जिसके उदय से स्त्रीत्व सूचक भाव होते हैं, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। जिसके उदय से पुरुषत्व सूचक भाव होते हैं, उसे पुरुष-वेद कहते हैं। जिसके उदय से स्त्रीत्व और पुरुषत्व दोनों से रहित एक तीसरे प्रकार के भाव होते हैं, उसे नपुंसक-वेद कहते हैं। ये नौ भेद अकषाय वेदनीय के हैं। कषाय वेदनीय के सोलह भेद इस प्रकार हैं- मूल कषाय चार हैं क्रोध, मान, माया और लोभ। इनमें से प्रत्येक की चार-चार अवस्थायें होती हैं। मिथ्यात्व के रहते हुए संसार का अन्त नहीं होता, इसलिए मिथ्यात्व को अनन्त कहते हैं और जो क्रोध, मान, माया या लोभ अनंत यानि मिथ्यात्व से बंधे हुए हैं, उन्हें अनंतानुबंधी कहते हैं। जिस क्रोध, मान, माया या लोभ के उदय से थोड़ा-सा भी देशचारित्र रूप भाव प्रकट नहीं हो सकता, उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जिस क्रोध, मान, माया या लोभ के उदय से जीव के सकलचारित्र रूप भाव नहीं होते, उन्हें प्रत्याख्यानावरण कहते हैं और जिस क्रोध, मान, माया या लोभ के उदय से शुद्धोपयोग रूप यथाख्यात चारित्र नहीं प्रकट होता, उसे संज्वलन कहते हैं। ये कषाय वेदनीय के सोलह भेद हैं। इस तरह मोहनीय के कुल अट्ठाईस भेद हैं।
×
×
  • Create New...