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  1. अगारी व्रती के जो और व्रत हैं, उन्हें कहते हैं- दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च ॥२१॥ अर्थ - दिग्विरति, देशविरति, अनर्थ-दण्ड विरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग परिमाण और अतिथि-संविभाग इन सात व्रतों से सहित गृहस्थ अणुव्रती होता है। English - The householder votaries also follow three minor vows i.e. abstaining from activity with regard to direction, country and purposeless sin, an four supplementary vows i.e. periodical concentration, fasting at regular intervals (on eighth and fourteenth day of each lunar period of 15 days), limiting consumable and non-consumable things, and partaking of one's food after feeding an ascetic. विशेषार्थ - पूर्व आदि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा बाँधकर जीवन पर्यन्त उससे बाहर न जाना और उसी के भीतर लेन देन करना दिग्विरति व्रत है। इस व्रत के पालने से गृहस्थ मर्यादा के बाहर किसी भी तरह की हिंसा नहीं करता। इसलिए उस क्षेत्र की अपेक्षा से वह महाव्रती सा हो जाता है। तथा मर्यादा के बाहर व्यापार करने से प्रभूत (बहुत) लाभ होने पर भी व्यापार नहीं करता है, अतः लोभ की भी कमी होती है। दिग्विरति व्रत की मर्यादा के भीतर कुछ समय के लिए देश का परिमाण कर लेने को देश-विरति व्रत कहते हैं। इसमें भी उतने समय के लिए श्रावक मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में महाव्रती के तुल्य हो जाता है। जिससे अपना कुछ लाभ तो न हो और व्यर्थ ही पाप का संचय होता हो ऐसे कामों को अनर्थ-दण्ड कहते हैं और उनके त्याग को अनर्थ-दण्ड विरति कहते हैं। अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं - अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और अशुभ श्रुति। दूसरों का बुरा विचारना कि अमुक की हार हो, अमुक को जेलखाना हो जाये, उसका लड़का मर जाये, यह सब अपध्यान है। दूसरों को पाप का उपदेश देना यानि ऐसे व्यापार की सलाह देना जिससे प्राणियों को कष्ट पहुँचे अथवा युद्ध वगैरह के लिए प्रोत्साहन मिले, पापोपदेश है। बिना जरूरत के जंगल कटवाना, जमीन खुदवाना, पानी खराब करना आदि प्रमादाचरित है। विषैली गैस, अस्त्र, शस्त्र आदि हिंसा की सामग्री देना हिंसादान है। हिंसा और राग आदि की बढ़ाने वाली दुष्ट कथाओं का सुनना, सुनाना आदि अशुभश्रुति है। इस प्रकार के अनर्थ दण्डों का त्याग करना अनर्थ-दण्ड विरति है। तीनों संध्याओं में समस्त पाप के कर्मों से विरत होकर नियत स्थान पर नियत समय के लिए मन, वचन और काय के एकाग्र करने को सामायिक कहते हैं। जितने समय तक गृहस्थ सामायिक करता है। उतने समय के लिये वह महाव्रती के समान हो जाता है। प्रोषध नाम पर्व का है। जिसमें पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय से निवृत्त होकर उपवासी रहती हैं, उसे उपवास कहते हैं। प्रोषध अर्थात् पर्व के दिन उपवास करने को प्रोषधोपवास कहते हैं। मोटे तौर पर तो चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है, किन्तु यथार्थ में तो सभी इन्द्रियों का विषय भोग से निवृत्त रहना ही उपवास है। इसी के लिए भोजन का त्याग किया जाता है। अतः उपवास के दिन श्रावक को सब आरम्भ छोड़कर और स्नान, तेल, फुलेल आदि न लगाकर चैत्यालय में अथवा साधुओं के निवास स्थान पर या अपने ही घर के किसी एकान्त स्थान पर धर्म-चर्चा करते हुए उपवास का समय बिताना चाहिए। खानपान, गन्ध माला वगैरह को उपभोग कहते हैं और वस्त्र, आभरण, अलंकार, सवारी, मकान वगैरह को परिभोग कहते हैं। कुछ समय के लिए अथवा जीवन पर्यन्त के लिए उपभोग और परिभोग का परिमाण करना कि मैं इतने समय तक इतनी वस्तुओं से ही अपना काम चलाऊँगा, यह उपभोगपरिभोग का परिमाण व्रत है। जो अपने संयम की रक्षा करते हुए विहार करता है, उसे अतिथि कहते हैं। अथवा जिसके आने का कोई दिन निश्चित नहीं है, वह अतिथि है। मोक्ष के लिए तत्पर संयमी अतिथि को शुद्ध चित्त से निर्दोष भिक्षा देना अतिथि–संविभाग व्रत है। ऐसे अतिथियों को आवश्यकता पड़ने पर योग्य औषध देना, रहने को स्थान देना, धर्म के उपकरण पिच्छिका कमण्डलु और शास्त्र वगैरह देना भी इसी व्रत में सम्मिलित हैं। इस सूत्र में ‘च' शब्द गृहस्थ के आगे कहे जाने वाले सल्लेखना धर्म को ग्रहण करने के लिए दिया है।
  2. क्रमशः अगारी व्रती का स्वरूप बतलाते हैं- अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ अर्थ - जो पाँचों पापों का एकदेश त्याग करता है। उस अणुव्रती को अगारी कहते हैं। अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा करने का त्याग करना प्रथम अणुव्रत है। राग, द्वेष अथवा हिंसा करने का त्याग करना प्रथम अणुव्रत है। राग, द्वेष अथवा मोह के वशीभूत होकर ऐसा वचन न बोलना, जिससे किसी का घर बरबाद हो जाये या गाँव पर मुसीबत आ जाये, दूसरा अणुव्रत है। जिससे दूसरे को कष्ट पहुँचे अथवा जिसमें राजदण्ड का भय हो ऐसी बिना दी हुई वस्तु को न लेने का त्याग, तीसरा अणुव्रत है। विवाहित या अविवाहित पर-स्त्री के साथ भोग का त्याग, चौथा अणुव्रत है। धन, धान्य, जमीन, जायदाद वगैरह का आवश्यकता के अनुसार एक प्रमाण निश्चित कर लेना, पाँचवां अणुव्रत है। इन पाँचों अणुव्रतों को जो नियमपूर्वक पालता है, वही अगारी व्रती है। English - One who observes the small vows and lives at home is a householder.
  3. आगे व्रती के भेद बतलाते हैं- अगार्यनगारश्च ॥१९॥ अर्थ - व्रती के दो भेद हैं - एक अगारी यानि गृहस्थ श्रावक और दूसरा अनगारी यानि गृहत्यागी साधु। English - The votaries are of two kinds - those who live in homes and those who have denounced home. शंका - एक साधु किसी देवालय में या खाली पड़े घर में आकर ठहर गये तो वे अगारी हो जायेंगे। और एक गृहस्थ अपनी स्त्री से झगड़ कर जंगल में जा बसा तो वह अनगारी कहलायेगा ? समाधान - अगार यद्यपि मकान को कहते हैं, किन्तु यहाँ बाहरी मकान न लेकर मानसिक मकान लेना चाहिए। अतः जिस मनुष्य के मन में घर बसा कर रहने की भावना है, वह भले ही जंगल में चला जाये, अगारी ही कहा जायेगा। और जिसके मन में वैसी भावना नहीं है, वह कुछ समय के लिए किसी मकान में ठहरने पर भी अगारी नहीं कहा जायेगा।
  4. अब व्रती का स्वरूप कहते हैं- नि:शल्यो व्रती ॥१८॥ अर्थ - जो शल्य रहित हो उसे व्रती कहते हैं। English - Anybody free from deceitfulness, non-belief in realities and desire in worldly pleasures is the votary. विशेषार्थ - शरीर में घुसकर तकलीफ देने वाले कील काँटे आदि को शल्य कहते हैं। जैसे कील काँटा कष्ट देता है, वैसे ही कर्म के उदय से होने वाला विकार भी जीव को कष्टदायक है, इसलिए उसे शल्य नाम दिया है। शल्य तीन प्रकार का है- माया, मिथ्यात्व और निदान। मायाचार या धूर्तता को माया कहते हैं। मिथ्या तत्त्वों का श्रद्धान करना, कुदेवों को पूजना मिथ्यात्व है। और विषयभोग की चाह को निदान कहते हैं। जो इन तीनों शल्यों को हृदय से निकाल कर व्रतों का पालन करता है, वही व्रती है। किन्तु जो दुनिया को ठगने के लिए व्रत लेता है, या व्रत लेकर यह सोचता रहता है कि व्रत धारण करने से मुझे भोगने के लिए अच्छी अच्छी देवांगनाएँ मिलेंगी, या जो व्रत लेकर भी मिथ्यात्व में पड़ा है, वह कभी भी व्रती नहीं हो सकता।
  5. अब परिग्रह का लक्षण कहते हैं- मूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ अर्थ - बाह्य गाय, भैंस, मणि, मुक्ता वगैरह चेतन-अचेतन वस्तुओं में तथा आन्तरिक राग, द्वेष, काम, क्रोधादि विकारों में जो ममत्व भाव है; कि ये मेरे हैं, इस भाव का नाम मूर्छा है और मूर्छा ही परिग्रह है। वास्तव में अभ्यन्तर ममत्व भाव ही परिग्रह है, क्योंकि पास में एक पैसा न होने पर भी जिसे दुनिया भर की तृष्णा है, वह परिग्रही है। बाह्य वस्तुओं को तो इसलिये परिग्रह कहा है कि वे ममत्व भाव के होने में कारण होती हैं। English - Infatuation is the desire through pramattayoga for acquisition, safeguarding, and addition to external and internal possessions.
  6. इसके बाद अब्रह्म का लक्षण बतलाते हैं- मैथुनमब्रह्म ॥१६॥ अर्थ - चारित्र मोहनीय का उदय होने पर राग भाव से प्रेरित होकर स्त्री पुरुष का जोड़ा जो रति सुख के लिए चेष्टा करता है, उसे मैथुन कहते हैं। और मैथुन को ही अब्रह्म कहते हैं। कभी-कभी दो पुरुषों में अथवा स्त्रियों में भी इस प्रकार की कुचेष्टा देखी जाती है। और कभी-कभी अकेला एक पुरुष ही काम से पीड़ित होकर कुचेष्टा कर बैठता है। वह सब अब्रह्म है। जिसके पालन से अहिंसा आदि धर्मों में वृद्धि होती है, उसे ब्रह्म कहते हैं। और ब्रह्म का नहीं होना ही अब्रह्म है। यह अब्रह्म सब पापों का पोषक है; क्योंकि मैथुन करने वाला हिंसा करता है, उसके लिए झूठ बोलता है; चोरी करता है, विवाह करके गृहस्थी बसाता है। English - Copulation through pramattayoga is unchastity.
  7. चोरी का लक्षण कहते हैं- अदत्तादानं स्तेयम् ॥१५॥ अर्थ - बिना दी हुई वस्तु का लेना चोरी है। यहाँ भी ‘प्रमत्तयोगात्। इत्यादि सूत्र से ‘प्रमत्तयोग' पद की अनुवृत्ति होती है। अतः बुरे भाव से जो परायी वस्तु को उठा लेने में प्रवृत्ति की जाती है, वह चोरी है। उस प्रवृत्ति के बाद चाहे कुछ हाथ लगे या न लगे, हर हालत में उसे चोर ही कहा जायेगा। English - Taking through pramattayoga anything that is not given is stealing.
  8. अनृत का लक्षण कहते हैं- असदभिधानमनृतम् ॥१४॥ अर्थ - जिससे प्राणियों को पीड़ा पहुँचती हो, वह बात सच्ची हो अथवा झूठी हो उसे कहना अनृत अथवा असत्य है। जैसे काने मनुष्य को काना कहना झूठ नहीं है फिर भी इससे उसको पीड़ा पहुँचती है, इसलिए ऐसा कहना असत्य ही है। आशय यह है तथा जैसा पहले ही लिख आये हैं कि प्रधान व्रत अहिंसा है। बाकी के चार व्रत उसी के पोषण और रक्षण के लिए हैं। अतः जो वचन हिंसाकारक है, वह असत्य है। English - Speaking through pramattayoga what is not commendable is the falsehood.
  9. अब हिंसा का लक्षण कहते हैं- प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥ अर्थ - प्रमादीपने से प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं। English - The severance of vitalities through pramattayoga (the mind, the speech and the body out of passion) is injury or violence. विशेषार्थ - हिंसा दो प्रकार की है - एक द्रव्य हिंसा, दूसरी भाव हिंसा संसार में सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्त से मरते भी हैं। किन्तु उनके मर जाने से ही हिंसा नहीं हो जाती। इसी से सूत्र में ‘प्रमत्तयोगात्' पद दिया है। वह पद यह बतलाता है कि जो मनुष्य जीवों की हिंसा करने के भाव नहीं रखता, बल्कि उनको बचाने के भाव रखता है, उसके द्वारा जो हिंसा होती है, उसका पाप उसे नहीं लगता। इसी से कहा है कि “प्राणों का घात कर देने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता। शास्त्रकारों ने इस बात को एक दृष्टांत के द्वारा और भी स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-एक मनुष्य देख-देख के चल रहा है। उसके पैर उठाने पर कोई क्षुद्र जन्तु उसके पैर के नीचे अचानक आ जाता है और कुचलकर मर जाता है तो मनुष्य को उस जीव के मारने का थोड़ा-सा भी पाप नहीं लगता। इसके विपरीत यदि कोई असावधानी से मार्ग में चलता है, तो उसके द्वारा किसी जीव का घात हो या न हो, उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है। जैसा कि कहा है-“जीव जिये या मरे जो अत्याचारी है, उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है। किंतु जो यत्नाचार से काम करता है, उसे हिंसा होने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता।'' अतः हिंसारूप परिणाम ही वास्तव में हिंसा है। द्रव्य हिंसा को तो केवल इसलिए हिंसा कहा है कि उसका भाव-हिंसा के साथ सम्बन्ध है। किन्तु द्रव्य हिंसा के होने पर भावहिंसा का होना अनिवार्य नहीं है। जैनेतर धर्मों में द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा को अलग-अलग न मानने से ही निम्न शंका की गयी है कि जल में जन्तु हैं, थल में जन्तु हैं, और पहाड़ की चोटी पर चले जाओ तो वहाँ भी जन्तु हैं। इस तरह समस्त लोक जन्तुओं से भरा हुआ है तो कोई अहिंसक कैसे हो सकता है। जैनधर्म में इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया है - जीव दो प्रकार के होते हैं- सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म तो न किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं, अतः उनका तो कोई प्रश्न ही नहीं। रहे स्थूल, सो जिनकी रक्षा करना संभव है, उनकी रक्षा की जाती है। अतः संयमी पुरुष को हिंसा का पाप कैसे लग सकता है।
  10. अन्य भावनाओं का निर्देश करते हैं- जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ अर्थ - संवेग और वैराग्य के लिए जगत् का और शरीर का स्वभाव विचारते रहना चाहिए। English - In order to cultivate awe at the misery of wordly existence and detachment to worldly things one should mediate over the nature of mundane existence of the universe and the body. विशेषार्थ - यह लोक अनादि-निधन है। बेंत के आसन के ऊपर एक गोल झांझ रखो और उस पर एक मृदंग खड़ा करो, ऐसा ही लोक का आकार है। इसमें भटकते हुए जीव अनन्तकाल से नाना योनियों में दुःख भोग रहे हैं। यहाँ कुछ भी नियत नहीं है। जीवन जल के बुलबुले के समान है, भोग सम्पदा बिजली की तरह चंचल है। इस तरह जगत् का स्वभाव विचारने से संसार से अरुचि पैदा होती है। इसी तरह यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है, अपवित्र है, इत्यादि काय का स्वरूप विचारने से विषयों में राग नहीं होता। अतः व्रती को जगत् का और काय (शरीर) का स्वभाव भी विचारते रहना चाहिए।
  11. इसके सिवा अन्य भावनाएँ भी बताते हैं- मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु ॥११॥ अर्थ - समस्त प्राणियों में ऐसी (मैत्री) भावना रखना चाहिए कि किसी भी प्राणी को दुःख न हो। गुणवान पुरुषों को देखकर हर्षित होना चाहिए और अपनी भक्ति प्रकट करना चाहिए। दु:खी प्राणियों को देखकर उनका दु:ख दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए और जो उद्धत लोग हैं, उनमें माध्यस्थ भाव रखना चाहिए। ऐसा करने से अहिंसा आदि व्रत परिपूर्ण होते हैं। English - Benevolence towards all living beings, joy at the sight of the virtuous, compassion and sympathy for the afflicted, and tolerance towards the insolent and ill-behaved are the right sentiments.
  12. और भी कहते हैं - दु:खमेव वा ॥१०॥ अर्थ - हिंसा आदि पाप दु:ख रूप ही हैं-ऐसी भावना रखनी चाहिए। क्योंकि हिंसादि दु:ख के कारण हैं, इसलिए दु:ख रूप ही हैं। English - These five sins should be considered and thought off as the cause of all sufferings.
  13. जैसे इन व्रतों को दृढ़ करने के लिए ये भावनाएँ कहीं हैं, वैसे ही इन व्रतों के विरोधी जो हिंसा आदि हैं, उनसे विमुख करने के लिए भी भावनाएँ कहते हैं- हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥ अर्थ - हिंसा आदि पाँच पाप इस लोक और परलोक में विनाशकारी। तथा निन्दनीय हैं, ऐसी भावना करनी चाहिए। English - The consequences of violence, falsehood, stealing, unchastity, and attachment are calamity and reproach in this world and in the next birth. विशेषार्थ - अर्थात् हिंसा के विषय में विचारना चाहिए कि जो हिंसा करता है, लोग सदा उसके बैरी रहते हैं। इस लोक में उसे फाँसी वगैरह होती है और मर कर भी वह नरक आदि में जन्म लेता है। अतः हिंसा से बचना ही श्रेष्ठ है। इसी तरह झूठ बोलने वाले का कोई विश्वास नहीं करता। इसी लोक में पहले राजा उसकी जीभ कटा लेता था। तथा उसके झूठ बोलने से जिन लोगों को कष्ट पहुँचता है, वे भी उसके दुश्मन हो जाते हैं और उसे भरसक कष्ट देते हैं। तथा मर कर वह अशुभगति में जन्म लेता है, अतः झूठ बोलने से बचना ही उत्तम है। इसी तरह चोर का सब तिरस्कार करते हैं। इसी लोक में उसे राजा की ओर से कठोर दण्ड मिलता है तथा मर कर भी अशुभगति में जाता है। अतः चोरी से बचना ही उत्तम है। तथा व्यभिचारी मनुष्य का चित्त सदा भ्रान्त रहता है। जैसे जंगली हाथी जाली हथिनी के धोखे में पड़कर पकड़ा जाता है, वैसे ही व्यभिचारी भी जब पकड़ा जाता है तो उसकी पूरी दुर्गति लोग कर डालते हैं। पुराने जमाने में तो ऐसे आदमी का लिंग ही काट डाला जाता था। आज कल भी उसे कठोर दण्ड मिलता है। मर कर भी वह दुर्गति में जाता है, अतः व्यभिचार से बचना ही हितकर है। तथा जैसे कोई पक्षी मांस का टुकड़ा लिये हो तो अन्य पक्षी उसके पीछे पड़ जाते हैं, वैसे ही परिग्रही मनुष्य के पीछे चोर लगे रहते हैं। उसे धन के कमाने, जोड़ने और उसकी रखवाली करने में भी कम कष्ट नहीं उठाना पड़ता। फिर भी उसकी तृष्णा कभी शान्त नहीं होती, तृष्णा के वशीभूत होकर उसे न्याय अन्याय का ध्यान नहीं रहता। इसी से मरकर वह दुर्गति में जाता है। यहाँ भी ‘लोभी लोभी कहकर लोग उसकी निन्दा करते हैं। अतः परिग्रह से बचना ही श्रेष्ठ है। इस तरह हिंसा आदि पापों की बुराई भी सोचते रहना चाहिए।
  14. अन्त में परिग्रहत्याग व्रत की भावनाएँ कहते हैं- मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ अर्थ - पाँचों इन्द्रियों के झट-विषयों से राग नहीं करना और अनिष्ट विषयों से द्वेष नहीं करना - ये पाँच परिग्रहत्याग व्रत की भावनाएँ हैं। जैसे इन व्रतों को दृढ़ करने के लिए ये भावनाएँ कहीं हैं, वैसे ही इन व्रतों के विरोधी जो हिंसा आदि हैं, उनसे विमुख करने के लिए भी भावनाएँ कहते हैं - English - Giving up attachment to objects agreeable to the five senses and aversion to objects disagreeable to the five senses constitute five observances of non-attachment.
  15. इसके बाद ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाएँ कहते हैं- स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥७॥ अर्थ - स्त्रियों के विषय में राग उत्पन्न करने वाली कथा को न सुनना, स्त्रियों के मनोहर अंगों को न ताकना, पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करना,कामोद्दीपन करने वाले रसों का सेवन न करना और अपने शरीर को इत्र तेल वगैरह से न सजाना, ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाएं हैं। English - Giving up listening to stories that excite attachment for women, looking at the beautiful bodies of women, recalling former sexual pleasure, delicacies stimulating amorous desire and adornment of own body, constitute five observances of chastity.
  16. तीसरे अचौर्यव्रत की भावनाएँ कहते हैं- शून्यागारविमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादाः पश्च ॥६॥ अर्थ - शून्यागार अर्थात् पर्वत की गुफा, वन और वृक्षों के कोटरों में निवास करना, विमोचितावास अर्थात् दूसरों के छोड़े हुए ऊजड़ स्थान में निवास करना, परोपरोधाकरण अर्थात् जहाँ आप ठहरे वहाँ यदि कोई दूसरा ठहरना चाहे तो उसे रोकना नहीं और जहाँ कोई पहले से ठहरा हो तो उसे हटाकर स्वयं ठहरे नहीं, भैक्ष्य शुद्धि अर्थात् शास्त्रोक्त रीति से शुद्ध भिक्षा लेना और सधर्माविसंवाद अर्थात् साधर्मी भाइयों से लड़ाई झगड़ा नहीं करना ये पाँच अचौर्य व्रत की भावनाएँ हैं। English - Residence in a solitary place, residence in a deserted habitation, causing no hindrance to the residence by others, acceptance of clean food and not quarreling with brother monks, are five observances of vow against stealing.
  17. दूसरे सत्यव्रत की भावनाएँ कहते हैं- क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचि भाषणं च पञ्च ॥५॥ अर्थ - क्रोध का त्याग, लोभ का त्याग, भय का त्याग, हँसी दिल्लगी का त्याग और हित मित वचन बोलना, ये पाँच सत्य व्रत की भावनाएं हैं। आशय यह है कि मनुष्य क्रोध से, लालच से, भय से और हँसी करने के लिए झूठ बोलता है। अतः इनसे बचते रहना चाहिए और जब बोले तो सावधानी से बोले, जिससे कोई बात ऐसी न निकल जाये जो दूसरे को कष्टकर हो।
  18. सर्वप्रथम अहिंसा व्रत की भावनाएँ कहते हैं- वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपान भोजनानि पञ्च ॥४॥ अर्थ - वचन गुप्ति, मनो गुप्ति, ईर्यासमिति, आदान-निक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन ये पाँच अहिंसा व्रत की भावनाएँ हैं। English - Control of speech, control of thought, observing the ground in front while walking, care in taking and placing things or objects, and examine the food in the sunlight before eating/drinking are five observances of non-violence. विशेषार्थ - वचन की प्रवृत्ति को अच्छी रीति से रोकना वचन गुप्ति है। मन की प्रवृत्ति को अच्छी रीति से रोकना मनोगुप्ति है। पृथ्वी को देखकर सावधानता पूर्वक चलना ईर्यासमिति है। सावधानता पूर्वक देख कर वस्तु को उठाना और रखना आदान-निक्षेपण समिति है। दिन में अच्छी तरह देखभाल कर खाना-पीना आलोकितपानभोजन है। इन पाँच बातों का ध्यान अहिंसा व्रती को रखना चाहिए।
  19. इन व्रतों की रक्षा के लिये आवश्यक भावनाओं को बतलाते हैं- तत्स्थैर्यार्थं भावनाः पञ्चपञ्च ॥३॥ अर्थ - इन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं। उन भावनाओं का सदा ध्यान रखने से व्रत दृढ़ हो जाते हैं। English - For the sake of stabilizing the vows, there are five observances for each of these.
  20. अब व्रतों के भेद बतलाते हैं- देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ अर्थ - इन पाँच पापों को एकदेश से त्याग करने को अणुव्रत कहते हैं और पूरी तरह से त्याग करने को महाव्रत कहते हैं। English - The vow is of two kinds, small and great from its being partial and total.
  21. पूर्व अध्याय में आस्रव का कथन हो चुका। उसमें पुण्यकर्म के आस्रव का मामूली-सा कथन किया था। इस अध्याय में उसका विशेष कथन करने के लिए व्रत का स्वरूप बतलाते हैं- हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ अर्थ - हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होने को व्रत कहते हैं। English - Desisting from injury, falsehood, stealing, unchastity, and attachment is the fivefold vow. विशेषार्थ - हिंसा आदि पापों का बुद्धिपूर्वक त्याग करने को व्रत कहते हैं। इन पाँच पापों का स्वरूप आगे बतलायेंगे। उनको त्यागने से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच व्रत होते हैं। इन सब में प्रधान अहिंसा व्रत है, इसी से उसे सब व्रतों के पहले रखा है। शेष चारों व्रत तो उसी की रक्षा के लिए हैं। जैसे खेत में धान बोने पर उसकी रक्षा के लिये चारों ओर बाड़ लगा देते हैं, वैसे ही सत्य आदि चार व्रत अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए बाड़रूप हैं। शंका - इन व्रतों को आस्रव का हेतु बतलाना ठीक नहीं है, क्योंकि आगे नौंवे अध्याय में संवर के कारण बतलायेंगे। उनमें जो दश धर्म हैं, उन दश धर्मों में से संयम धर्म में व्रतों का अन्तर्भाव होता है? अतः व्रत संवर के कारण हैं, आस्रव के कारण नहीं हैं ? समाधान - यह ठीक नहीं है, संवर तो निवृत्ति रूप होता है, उसका कथन आगे किया जायेगा। और ये व्रत निवृत्ति रूप नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति रूप है। क्योंकि इनमें हिंसा, झूठ, चोरी वगैरह को त्याग कर अहिंसा पालने का, सच बोलने का, दी हुई वस्तु को लेने का विधान है। तथा जो इन व्रतों का अच्छी तरह से अभ्यास कर लेता है, वही संवर को आसानी से कर सकता है। अतः व्रतों को अलग गिनाया है।
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