इसके आगे व्रतदूषक कार्यों का विवेचन करने के लिए सबसे पहले सम्यक्त्व के पाँच अतिचार कहते हैं-
शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥२३॥
अर्थ - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा, अन्य दृष्टिसंस्तव, ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं।
English - Doubt in the teachings of the Jina, desire for worldly enjoyment, repugnance or disgust at the afflicted, admiration for the knowledge and conduct of the wrong believer and praise of wrong believers, are the five transgressions of the right believer.
विशेषार्थ - अरहन्त भगवान् के द्वारा कहे गये तत्त्वों में यह शंका होना कि ये ठीक हैं या नहीं, शंका है। अथवा अपनी आत्मा को अखण्ड अविनाशी जानकर भी मृत्यु वगैरह से डरना सो शंका है। इस लोक या परलोक में भोगों की चाह को कांक्षा कहते हैं। दुःखी, दरिद्री, रोगी आदि को देख कर उससे घृणा करना, विचिकित्सा है। मिथ्या-दृष्टियों के ज्ञान, तप वगैरह की मन में सराहना करना अन्यदृष्टि प्रशंसा है और वचन से तारीफ करना संस्तव है। ये पाँच सम्यग्दर्शन के अतिचार यानि दोष हैं।