अगारी व्रती के जो और व्रत हैं, उन्हें कहते हैं-
दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च ॥२१॥
अर्थ - दिग्विरति, देशविरति, अनर्थ-दण्ड विरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग परिमाण और अतिथि-संविभाग इन सात व्रतों से सहित गृहस्थ अणुव्रती होता है।
English - The householder votaries also follow three minor vows i.e. abstaining from activity with regard to direction, country and purposeless sin, an four supplementary vows i.e. periodical concentration, fasting at regular intervals (on eighth and fourteenth day of each lunar period of 15 days), limiting consumable and non-consumable things, and partaking of one's food after feeding an ascetic.
विशेषार्थ - पूर्व आदि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा बाँधकर जीवन पर्यन्त उससे बाहर न जाना और उसी के भीतर लेन देन करना दिग्विरति व्रत है। इस व्रत के पालने से गृहस्थ मर्यादा के बाहर किसी भी तरह की हिंसा नहीं करता। इसलिए उस क्षेत्र की अपेक्षा से वह महाव्रती सा हो जाता है। तथा मर्यादा के बाहर व्यापार करने से प्रभूत (बहुत) लाभ होने पर भी व्यापार नहीं करता है, अतः लोभ की भी कमी होती है।
दिग्विरति व्रत की मर्यादा के भीतर कुछ समय के लिए देश का परिमाण कर लेने को देश-विरति व्रत कहते हैं। इसमें भी उतने समय के लिए श्रावक मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में महाव्रती के तुल्य हो जाता है। जिससे अपना कुछ लाभ तो न हो और व्यर्थ ही पाप का संचय होता हो ऐसे कामों को अनर्थ-दण्ड कहते हैं और उनके त्याग को अनर्थ-दण्ड विरति कहते हैं।
अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं - अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और अशुभ श्रुति। दूसरों का बुरा विचारना कि अमुक की हार हो, अमुक को जेलखाना हो जाये, उसका लड़का मर जाये, यह सब अपध्यान है। दूसरों को पाप का उपदेश देना यानि ऐसे व्यापार की सलाह देना जिससे प्राणियों को कष्ट पहुँचे अथवा युद्ध वगैरह के लिए प्रोत्साहन मिले, पापोपदेश है। बिना जरूरत के जंगल कटवाना, जमीन खुदवाना, पानी खराब करना आदि प्रमादाचरित है। विषैली गैस, अस्त्र, शस्त्र आदि हिंसा की सामग्री देना हिंसादान है। हिंसा और राग आदि की बढ़ाने वाली दुष्ट कथाओं का सुनना, सुनाना आदि अशुभश्रुति है। इस प्रकार के अनर्थ दण्डों का त्याग करना अनर्थ-दण्ड विरति है।
तीनों संध्याओं में समस्त पाप के कर्मों से विरत होकर नियत स्थान पर नियत समय के लिए मन, वचन और काय के एकाग्र करने को सामायिक कहते हैं। जितने समय तक गृहस्थ सामायिक करता है। उतने समय के लिये वह महाव्रती के समान हो जाता है। प्रोषध नाम पर्व का है। जिसमें पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय से निवृत्त होकर उपवासी रहती हैं, उसे उपवास कहते हैं। प्रोषध अर्थात् पर्व के दिन उपवास करने को प्रोषधोपवास कहते हैं। मोटे तौर पर तो चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है, किन्तु यथार्थ में तो सभी इन्द्रियों का विषय भोग से निवृत्त रहना ही उपवास है। इसी के लिए भोजन का त्याग किया जाता है। अतः उपवास के दिन श्रावक को सब आरम्भ छोड़कर और स्नान, तेल, फुलेल आदि न लगाकर चैत्यालय में अथवा साधुओं के निवास स्थान पर या अपने ही घर के किसी एकान्त स्थान पर धर्म-चर्चा करते हुए उपवास का समय बिताना चाहिए। खानपान, गन्ध माला वगैरह को उपभोग कहते हैं और वस्त्र, आभरण, अलंकार, सवारी, मकान वगैरह को परिभोग कहते हैं। कुछ समय के लिए अथवा जीवन पर्यन्त के लिए उपभोग और परिभोग का परिमाण करना कि मैं इतने समय तक इतनी वस्तुओं से ही अपना काम चलाऊँगा, यह उपभोगपरिभोग का परिमाण व्रत है। जो अपने संयम की रक्षा करते हुए विहार करता है, उसे अतिथि कहते हैं। अथवा जिसके आने का कोई दिन निश्चित नहीं है, वह अतिथि है। मोक्ष के लिए तत्पर संयमी अतिथि को शुद्ध चित्त से निर्दोष भिक्षा देना अतिथि–संविभाग व्रत है। ऐसे अतिथियों को आवश्यकता पड़ने पर योग्य औषध देना, रहने को स्थान देना, धर्म के उपकरण पिच्छिका कमण्डलु और शास्त्र वगैरह देना भी इसी व्रत में सम्मिलित हैं। इस सूत्र में ‘च' शब्द गृहस्थ के आगे कहे जाने वाले सल्लेखना धर्म को ग्रहण करने के लिए दिया है।