पत्र क्रमांक-१६१
२०-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
जर्जरकायी शीत परीषहविजयी दादा गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के परीषहविजयी पुरुषार्थ को प्रणाम करता हूँ... हे गुरुवर! मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास के बाद आपने शीतकाल का प्रवास भी वहीं किया। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने ०७-११-२०१५ को भीलवाड़ा में बतलाया
गुरुदेव का सदा ध्यान रखते : मुनि श्री विद्यासागर
“शीतकाल में गुरुदेव के लिए समाज के लोग चावल की प्यांल (चारा) लेकर आए, तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज अपनी देखरेख में उसे छत पर धूप में फैलवा देते। फिर दिन छिपने से पहले गुरुदेव के कक्ष में पाटे पर बिछा देते थे। प्रतिदिन संघ के सभी साधु एवं त्यागीगण भी चावल के प्यांल का उपयोग करते थे। दिन निकलते ही संघस्थ ब्रह्मचारीगण प्यांल (पियाँर) को धूप में फैला देते थे। जिससे प्यांल में कोई जीव न पड़ पायें और शाम को मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज अपनी पिच्छी से परिमार्जित करके गुरुदेव के लिए प्यांल को बिछा देते थे। किशनगढ़ शीतकाल में गुरुदेव को साईटिका की पीड़ा ज्यादा थी तो दोपहर में सामायिक के बाद धूप में गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज, सरसों के तेल से मालिश करते थे। वे गुरुवर का सदा ध्यान रखते थे।'
इस तरह १९७१ वर्ष आप गुरु-शिष्य की साधनामय जीवन का पुरुषार्थ देखकर धन्य हो गया और उपदेश दे गया समय रहते जो अपने मानवोचित विशिष्ट कर्तव्य कर लेते हैं, वे मनुष्य रूप में महापुरुष कहलाते हैं। उनका ही जीवन आदर्शरूप में याद किया जाता है। ऐसे गुरु-शिष्य के चरणों में जीवन की हर श्वास नमन करती है..
आपका
शिष्यानुशिष्य