पत्र क्रमांक-१७०
०२-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
श्रामण्य के परिपालक गुरुवर परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में संख्यातीत नमन करता हूँ...
हे गुरुवर! १९७२ नसीराबाद चातुर्मास में भी आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरु मूलगुण और उत्तरगुणों की साधना में सतत लगे रहे। दीक्षा के बाद से ही साधनामय संघर्ष करना उनकी आदतों में सुमार होता जा रहा था। उनकी अनुभूति ने मूकमाटी महाकाव्य में लिखा-‘‘संघर्षमय जीवन का अन्त, हर्षमय हुआ करता है।'' इस सम्बन्ध में दीपचंद जी (नांदसी) ने बताया
मुनि अपना संकल्प नहीं छोड़ते
“मुनि श्री विद्यासागर जी दीक्षा के समय से ही परीषहजय को मूलगुणों के समान मानकर ही उनको विजय करते रहे थे। नसीराबाद चातुर्मास में एक दिन शाम की सामयिक खुले में कर रहे थे। तब तेज वारिश आ गई वे सामयिक में जैसे के तैसे बैठे रहे आधे घण्टे बाद जब श्रावक लोग आये उन्होंने देखा तो उन श्रावकों ने पाटे सहित उठा लिया और बरामदे में ले गए। दूसरे दिन उन्हीं श्रावकों ने मुनिवर से कहा-आप पानी में सामयिक कर रहे थे, ऐसे में बीमार हो जायेंगे। तब मुनिवर बोले-‘पानी में सामयिक नहीं कर रहा था।' तो श्रावक बोले-कल हम लोगों ने देखा तभी तो हम लोगों ने पाटा सहित आपको उठाया था। तब मुनिश्री बोले-‘मैं वही तो कह रहा था सुनो तो, मैं पानी में सामयिक नहीं कर रहा था। सामयिक कर रहा था तो पानी आ गया था और सामयिक संकल्पपूर्वक की जाती है। मुनि अपना संकल्प नहीं छोड़ते, अभी तो जवानी है, जवानी में ही तो साधना होगी।' इस तरह आपके लाड़ले शिष्य अपनी साधना में किन्तु-परन्तु नहीं लगाते थे और न ही किसी का हस्तक्षेप पसंद करते थे। ऐसे बहादुर साधक के गुरु चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य