पत्र क्रमांक-१६२
२३-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
बाह्य एवं अन्तरंग व्यक्तित्व निर्माण की समग्र प्रविधियों के कुशल विशेषज्ञ परमपूज्य गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के महामुनिराजत्व रूप वैशिष्ट्य को त्रिकाल त्रिकरणयुक्त त्रिभक्तिपूर्वक नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु..., हे गुरुवर ! आज मैं अपने गुरुवर के चमकते हुए व्यक्तित्व कृतित्व के बारे में विचार करता हूँ कि यह कैसे सम्भव हुआ? जब इस प्रश्न के समाधान के विषय में खोजबीन की तो मुझे मेरे गुरुवर के शब्द याद आये! जो उन्होंने हाईकू के रूप में लिखे हैं-
गुरुकृपा से
बाँसुरी बना मैं तो
ठेट बाँस था।
गुरु ने मुझे
प्रकट कर दिया
दिया दे दिया।
उजाले में हैं।
उजाला करते हैं।
गुरु को बंदू ।'
तब मुझे अनुभूति हुई कि जिस प्रकार जलता हुआ दीपक ही बुझे-अनजले दीपक को जलाता है। उसी प्रकार आपने अपनी दैदीप्यमान ज्ञान-ज्योति की रोशनी में अनेकों भटके हुए प्रकाश इच्छुकों एवं जिज्ञासुओं को पथ प्रदर्शित किया था। जिनमें प्रमुखता से आपने एक ऐसा हीरा तरासा जो आपका पवित्र स्नेहिल स्पर्श पाकर जन्म-जन्मांतर की ज्ञान पिपासा से तृप्त होकर ऐसा चमका कि मणिदीप सम अक्षय प्रकाश प्रदान कर रहा है।
जिस प्रकार आपने सर्वज्ञवाणी के रहस्य को जानकर तपश्चर्या के पुरुषार्थ से चेतना के विविध आयामों को अनावृत कर ज्ञानचेतना के मर्म को अनुभूत किया था। उसी प्रकार मेरे गुरुवर ने आपके सहज सुलभ पारदर्शी ज्ञान रोशनी में चेतना के रहस्यों की कई परतें उजागर कर लीं थीं। यही कारण है कि वे आपके बिना एक पल भी नहीं रहते थे, क्योंकि उन्हें प्रतिक्षण नई-नई अनुभूतियाँ आपके सान्निध्य में प्राप्त होतीं थीं और वे उसे खोना नहीं चाहते थे।
हे दादागुरु जी ! ये तो आप भी जानते हैं कि मेरे गुरुवर की मेधा-शक्ति इतनी उत्कृष्ट कोटि की है। कि आप आगम, सिद्धान्त, अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, चारित्र, तप आदि के बारे में जो भी दृष्टिकोणचिन्तन बताते वह उनके धारणाकोष की वसीयत बन जाता था। जिसे हम पोते शिष्य आज पा रहे हैं। आपके लाड़ले शिष्य की अलौकिक योग्यता को देखते हुए सन् १९६७ में पण्डित श्री महेन्द्र कुमार जी पाटनी ने ब्रह्मचारी विद्याधर जी को कातंत्ररूपमाला, धनंजय नाममाला एवं श्रुतबोध पढ़ाते समय आपसे कहा था कि विद्याधर जी प्रतिभा सम्पन्न, मेधावी, प्रज्ञावान ब्रह्मचारी हैं। यदि ये पहले आपके सम्पर्क में आ जाते तो कई विद्याओं में पारंगत हो जाते। तब आपने कहा था कि सब भाग्य भरोसे है। बस, आत्मविद्या हस्तगत हो जाये तो स्व-पर कल्याण हो जायेगा। | हे दादागुरु! आपने ४ वर्ष के छोटे से काल में अपना अनुभूत विचार साक्षात् करके दिखा दिया। आत्मरस ऐसा चखाया कि आज वे स्वयं तो चख ही रहे हैं, हम शिष्यों को भी चखा रहे हैं और आत्मरस में इतने पग गए हैं कि उनकी दृष्टि में, वाणी में, लेखनी में, व्यवहार में चेतन तत्त्व की बातें/रहस्य उद्घाटित होते रहते हैं।
ऐसे महामना पुरुष के बृहद् और सूक्ष्म, अन्तरंग एवं बहिरंग व्यक्तित्व-कृतित्व की खोजबीन करना मुझ अल्पज्ञ शक्तिहीन साधक के लिए बहुत कठिन कार्य है फिर भी गुरुभक्ति उत्साहित किए हुए है। मैं कितना सफल हुआ/हो रहा/होऊँगा यह विचार मन में नहीं आता क्योंकि मेरे गुरुदेव की महिमारूप मिश्री ही ऐसी है कि थोड़ा भी लिखो तो वह बहुत मीठी ही लगती है।
हे दादागुरु! अपने इस पोते शिष्य को ऐसा आशीर्वाद प्रदान कर देना कि मेरे द्वारा लिया गया महत् । कार्य पूर्ण हो जाये और ‘अन्तर्यात्री : आत्मभोक्ता योगी' का कोई भी पक्ष आवृत न रह जाये। मेरा चरित्रनायक नंगा है तो उसके नग्नता की सुन्दरता को मैं भी पूर्ण नंगा दिखा सकें। वास्तव में प्रकृति और पुरुष तो नंगे ही होते हैं किन्तु पर प्रकृति और पुरुष की युति आवृत होती है। मैं तो आपके लाड़ले मेरे गुरु की प्रकृति और पुरुष को जैसा का तैसा अनुभूत कर प्रकट करना चाहता
सन् १९७२ ने आप गुरु-शिष्य को कैसा-क्या देखा है? उसे मैं खोज करने का शुभ पुरुषार्थ कर रहा हूँ जैसे-जैसे आप गुरु-शिष्य के पूरातत्त्व को खोजता जाऊँगा वैसे-वैसे जनहित में उद्घाटित करता जाऊँगा। गुरु-शिष्य दोऊ खड़े काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु-शिष्य की आतम खोल दिखाय। अनंत प्रणाम करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य