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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 157 - प्रत्युत्पन्नमति विद्यासागर

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१५७

    १६-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

    विद्याप्रेमी शिष्य के गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के वात्सल्य भावों को करबद्ध विनम्र नमन करता हूँ... हे गुरुवर! जिस मदनगंज-किशनगढ़ में आप गुरु-शिष्य ने चातुर्मास किया था, उसी मदनगंज किशनगढ़ में १९९५ में हम शिष्यानुशिष्य ने भी चातुर्मास किया तब एक दिन ९९ वर्ष के डॉ. फैआज अली दर्शन करने पधारे। उनसे जो चर्चा हुई वह मैं आपको बता रहा हूँ

     

    प्रत्युत्पन्नमति विद्यासागर

    डॉ. - आप विद्यासागर जी के शिष्य हैं? या सुधासागर जी के?

    मैं - मुनि श्री सुधासागर जी, क्षुल्लक श्री गम्भीरसागर जी और मैं आचार्य विद्यासागर जी महाराज के शिष्य हैं।

    डॉ. - वे यहाँ कभी नहीं आयेंगे क्या? जब से गए अभी तक नहीं आये!

    मैं - ऐसा उन्होंने संकल्प नहीं किया है और वे आने के लिए मना भी नहीं करते। एक बार जाने के बाद आये थे १९७९ में और इसी मदनगंज-किशनगढ़ में पंचकल्याणक करवाया था।

    डॉ. - मुझे उनसे बहुत कुछ पूछना है। वे बहुत बड़े गुरु बन गए हैं। मैंने उनको थोड़ी-सी अंग्रेजी पढ़ाई थी।

    मैं - जब आपने अंग्रेजी पढ़ाई थी तब आपने क्या विशेषता देखी।

    डॉ. - वे बहुत होशियार तेज बुद्धि के साधु हैं। २-३ दिन में ही उन्होंने हमको अंग्रेजी की पोयम बनाकर दिखायी थी। जिसका नाम था My Self उनके जैसा प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति हमने नहीं देखा। हम जितना बताते थे वे दूसरे दिन उससे कई कदम आगे मिलते थे। एक बार जो पढ़ लेते थे भूलते नहीं थे। उनको पढ़ाते समय मुझे डर लगता था कहीं मुझसे गलती न हो जाए। वे बहुत उच्च कोटि के विद्वान् साधु हैं। वे बहुत अच्छा प्रवचन भी करते हैं।

    मैं - उन्होंने आपको कुछ त्याग कराया था क्या?

    डॉ. - न बाबा न! वे बहुत धर्म सहिष्णु हैं। पर मैं मांसादि नहीं खाता। आप वह पोयम देखना चाहेंगे क्या?

    मैं - हाँ... हाँ... क्यों नहीं।

    डॉ. - (ऊपर जेब में से एक कागज निकाला) यह लो... ये उन्हीं के हाथ की लिखी है। हमने नोट कर ली थी।

    मैं - यह मैं रख सकता हूँ क्या?

    डॉ. - न बाबा न! ये अमूल्य धरोहर है। हो सके तो उन तक हमारा संदेश पहुँचा देना... । (चले गये)

    बाद में वह अंग्रेजी की पोयम १९७३ में प्रकाशित ब्यावर चातुर्मास की स्मारिका में प्रकाशित हुई। जिसका पद्यानुवाद भी मेरे गुरुवर ने किया है। पुनः आपको भेज रहा हूँ

     

    इस तरह मेरे गुरुवर महापुरुष की नाईं व्यक्तित्व को धारण करते थे। ये सब पूर्व जन्म के संस्कारो का पुनर्जागरण हो रहा था। ऐसे महापुरुषीय व्यक्तित्व के धनी गुरु-शिष्य के चरणों में शीश झुकाता हुआ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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