पत्र क्रमांक-१५८
१७-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
अन्तर्मुख स्वभावी परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... | हे गुरुवर! मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास के दौरान आपकी और आपके लाड़ले शिष्य की कई विशेषताएँ लोगों ने देखीं। वह मैं आपको बता रहा हूँ। डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य (सागर, म.प्र.) को अनुभूति बता रहा हूँ-
विद्वानों को भी मिलती आनंदानुभूति
“सौभाग्यवश मैं एक बार पर्युषण पर्व में अजमेर गया उस समय आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का चातुर्मास मदनगंज में था। माननीय सर सेठ भागचंद जी सोनी जी से मैंने उनके दर्शन करने की आकांक्षा प्रकट की। पर्युषण पर्व प्रारम्भ होने में एक दिन बाकी था। अतः उन्होंने श्री छगनलाल जी पाटनी को कहा-पण्डित जी को मदनगंज ले जाकर आचार्यश्री के दर्शन करा लाओ। हम लोग गए। आचार्य ज्ञानसागर जी और उनके नवदीक्षित मुनि तथा २-३ क्षुल्लक ऐलक भी थे सभी के दर्शन किए। संघ का दर्शन करने का प्रथम सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। वहाँ पर २-३ घण्टा रहा, पर बड़ा आनंद आया। इतने समय में अनेक विषयों पर चर्चा हुई। उस दिन प्रमुख चर्चा का विषय रहा सामायिक और सामयिक शब्द आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने सामयिक शब्द का प्रयोग अधिक पसंद किया और कहा कि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी अपने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में श्लोक नम्बर ९७-१०५ तक ९ बार सामयिक शब्द का ही प्रयोग किया है। कुछ समय मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के पास भी बैठा उन्होंने स्वयं रचित हिन्दी, संस्कृत की कविताएँ सुनायीं जिसे सुनकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई।'' इसी प्रकार दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने मुझे ०७-११-२०१५ भीलवाड़ा में दो संस्मरण सुनाये
गुरुवर ने की शिष्य की प्रशंसा
आसौज माह (सितम्बर) की भीषण गर्मी का समय चल रहा था। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने ७ दिन अखण्ड मौन की साधना की। वे न तो इशारा करते थे, न ही लिखकर बताते थे और न ही हाँ, हूँ करते थे। उसी दौरान एक दिन सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब अजमेर से दर्शन करने आये। तब मैं गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज को आहार के पश्चात् चन्द्रप्रभ मन्दिर के प्रांगण में स्वास्थ्य लाभ हेतु टहला रहा था। सेठ साहब ने गुरुदेव को नमोऽस्तु किया और फिर टीन सेड के नीचे जमीन पर बैठकर स्वाध्याय कर रहे मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के पास गए, उनको नमोऽस्तु किया। तो मुनि श्री ने बिना देखे ही हाथ उठाकर आशीर्वाद दे दिया। यह प्रसंग आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने देख लिया और मुनि श्री विद्यासागर जी की दृढ़ता एवं साधना को देखकर मुझसे बोले-चतुर्थकाल में मुनि श्री विद्यासागर जी जैसे साधु हुआ करते थे। जो अपने ज्ञान-ध्यान-तप में लीन रहते थे। गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज अपने सुयोग्यतम शिष्य की शुद्धचर्या एवं तप-साधना से इतने अधिक आनंदित आह्लादित रहते थे कि उनका वर्णन शब्द गम्य न होकर अनुभव गम्य ही है। स्वयं गुरुदेव अपने शिष्य के प्रति विनयभाव रखते थे।'
संस्कृतिरक्षक गुरु-शिष्य
१९७१ चातुर्मास के दौरान एक दिन ब्रह्मचारी सूरजमल जी बाबा आये। उन्होंने बहुत सारे विशेषण लगाकर गुरुदेव की जय बोली-शुद्धोपयोगी शुभोपयोगी, ज्ञानी, ध्यानी, तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध, वयोवृद्ध, ज्ञानमूर्ति, चारित्रविभूषण, न्यायविज्ञ, साहित्य मनीषी, सिद्धान्ताचार्य, व्याकरणाचार्य, ज्योतिषाचार्य, अध्यात्मयोगी, आगमज्ञाता, पुराणविज्ञ, आचार्य परमेष्ठी, भगवन् श्री गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की जय। हे महाराज! धर्म संस्कृति की रक्षार्थ इतिहास को कुछ श्लोकों में लिखकर दीजिए। जिससे हमारी प्राचीनता सिद्ध हो सके। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने दो अनुष्टुप छन्द संस्कृत भाषा में बनाकर दिए। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज भी धर्म संस्कृति की रक्षार्थ भावविह्वल हो उठे और एक वसन्ततिलका छन्द संस्कृत भाषा में लिखकर दिया। तो सूरजमल बाबा ने उसे आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को दिखाया। तब गुरुदेव ने उसे पढ़ा और बड़े ही प्रसन्न हुए।" इसी प्रकार श्री दीपचंद जी चौधरी (मदनगंज-किशनगढ़) ने बताया
छोटे बच्चों को पहले खिलाओ फिर आहार दान दो
‘‘सन् १९७१ चातुर्मास चल रहा था, तब एक दिन मेरे चौके में गुरु और चेले (आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज और मुनि विद्यासागर जी महाराज) की एक साथ विधि मिल गई। हम लोग पड़गाहन करके आनंदित हो गए। दोनों गुरु-शिष्य की नवधाभक्ति की, एक साथ पूजा और एक साथ आहार शुरु हुआ। आहार शुरु होते ही गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज ने अन्तराय कर दिया। हम लोगों को कुछ समझ नहीं आया, सब हक्के-बक्के रह गए। महाराज बाहर आये तो पूछा-महाराज आपने अन्तराय क्यों किया। तब गुरुदेव बोले- आपका छोटा बच्चा भूखा है और वह खाने के लिए माँग रहा है। अतः पहले उसे खिलाओ इसलिए मैंने बच्चे की आवाज सुनकर अन्तराय कर दिया, किन्तु मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज आहार करते रहे और उनका आहार निरंतराय हो गया। हम परिवार वालों को आधी खुशी, आधा दुःख मिश्रित अनुभव हुआ। लौटकर जब हम सब मुनि श्री विद्यासागर जी के साथ मन्दिर पहुँचे तो गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पास गए। हम लोग भी साथ में थे। मुनि श्री विद्यासागर जी ने गुरुवर से पूछा- आपका अन्तराय कैसे हुआ?' तब गुरुजी बोले- बच्चे की आर्तध्वनि सुनकर, वह भी दाता के घर में, इसलिए अन्तराय कर दिया। तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने पूछा-'ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए था? हमने तो आवाज सुनी नहीं।' तब गुरुदेव बाले-‘आपको बाधा नहीं दिखी तो आपको अन्तराय नहीं करना चाहिए, आपने सही किया।' तब हम लोगों ने गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज से प्रायश्चित्त माँगा। तब गुरुदेव बोले-‘प्रायश्चित्त नहीं, सावधानी रखो। बच्चों को पहले अच्छे से खिला-पिला देना चाहिए।'
किशनगढ़ के ही श्री रमेशचंद जी गंगवाल ने भी १९७१ चातुर्मास के दौरान का एक संस्मरण २०१७ में सुनाया-
लोकसमाचारों का ज्ञान : खबरनवीसों से
“आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज, मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज, ऐलक सन्मतिसागर जी महाराज, क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज, क्षुल्लक विनयसागर जी महाराज का चातुर्मास चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मन्दिर मदनगंज-किशनगढ़ में हुआ। तब मैं उस समय कॉलेज में पढ़ता था। रात में प्रतिदिन ८ बजे वैयावृत्य करने हेतु जाता था। उस समय मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को रोज अखबारों के विशेष-विशेष समाचारों को बताया करता था क्योंकि संघ के कोई भी साधु अखबार नहीं पढ़ते थे। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज प्रतिदिन अखबारों के समाचारों के माध्यम से अपने प्रवचनों में धर्म की बातों को समझाया करते थे, जिससे हमारे जैसे युवाओं को बात जल्दी समझ में आ जाया करती थी। वे कभीकभी हँसी में कहा करते थे कल रात खबरनवीश ने बताया ऐसा बोलकर सबको हँसा देते थे।"
इस तरह आप गुरु-शिष्य की रत्नत्रयरूप विशेषताओं को देख समाजजन श्रद्धावनत रहते। आपने कभी भी प्रभावना की चिंता नहीं की और न ही प्रभावना के लिए कभी समाज को कहा। फिर भी आप जहाँ भी जाते/प्रवास करते वहाँ पर आपकी चर्या-क्रिया से स्वतः ही प्रभावना हो जाती। ऐसे आत्मप्रभावक गुरु-शिष्य के चरणों में नमोऽस्तु करते हुए...
आपका
शिष्यानुशिष्य