पत्र क्रमांक-१६९
०१-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
पूर्व में ही शंकालु की शंका के ज्ञाता परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में शंकारहित नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपने आगम का जीवनभर ज्ञान-ध्यान-चिंतन-मनन-अभ्यास किया। जिससे स्वाध्याय की सिद्धियाँ स्वयमेव आपके पास आ गयीं थीं। फलस्वरूप आप आगत व्यक्ति की भावनाओं को पहचान जाते थे। नसीराबाद चातुर्मास का ऐसा एक वाकया भागचंद जी बिलाला इंजीनियर ने सुनाया-
प्रयोगात्मक समाधानकर्ता : गुरुवर ज्ञानसागर जी
‘‘एक दिन जब आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज संघ को स्वाध्याय करा रहे थे, उस वक्त मैं भी स्वाध्याय सुन रहा था। तभी एक व्यक्ति आया सफेद धोती-दुपट्टा पहने था। वह वहाँ आकर बैठ गया। उसने महाराज को नमोऽस्तु आदि भी नहीं किया, फिर वह अवसर पाकर बोला-मैं श्वेताम्बर मुनि बना पर मुझे वहाँ शान्ति-सुख की अनुभूति नहीं मिली और भी कई जगहों पर गया शान्ति को खोजता रहा, पर कहीं नहीं मिली। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने पूछा-'हमसे आपको क्या चाहिए?' तब उसने कहा-मुझे किसी से ज्ञात हुआ है कि आप बहुत ज्ञानी हैं, ध्यानी हैं, आत्मानुभूति करते रहते हैं अतः मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि शान्ति कैसे मिलेगी? तब गुरुवर ने कहा-'परिग्रह दुःख का कारण है अतः लंगोटी की चाह भी दु:खदायक है। तो वह व्यक्ति बोला-मेरा इन कपड़ों से बिल्कुल भी राग नहीं है। जिस तरह आप शरीर होते हुए भी शरीर से राग नहीं करते हैं, वैसे ही मैं भी इन कपड़ों से कोई राग नहीं करता। यह सुनकर गुरु महाराज ज्ञानसागर जी मुस्कुराने लगे। फिर उस व्यक्ति को इशारा करके पास बुलाया और जैसे ही वह पास में आया महाराज उसकी धोती पकड़कर गाँठ खोलने लगे। वह व्यक्ति एकदम घबरा गया तथा बोला-यह आप क्या कर रहे हैं? तब गुरु महाराज बोले- आपको इन कपड़ों से राग नहीं है सो इनको हटा रहा हूँ। जब आपको राग ही नहीं है तो घबरा क्यों रहे हो।' वह व्यक्ति धोती खींचते हुए पीछे हट गया। तो गुरु महाराज बोले-‘भैया! बिना राग के कपड़े पहने ही नहीं जाते, गाँठ लग नहीं सकती।' तब उस व्यक्ति को जवाब देते नहीं बना। इस तरह गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने प्रयोग करके उसे अनुभूत करा दिया कि अशान्ति का कारण क्या है?" इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भी २६-११-२०१५ को भीलवाड़ा में बताया-
समयसार की आचार्य ज्ञानसागरकृत हिन्दी टीका का प्रभाव
‘नसीराबाद चातुर्मास में स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन मुनि ने जो आध्यात्मिक विचारों से प्रभावित होकर एकान्त आम्नाय स्वीकार कर ली थी। वे ब्रह्मचारिणी दराखाबाई और ब्रह्मचारिणी मणिबाई जी आदि के साथ आये थे और आचार्य गुरुवर की समाधि तक रुके रहे, उनका नाम था ब्र. विकासचंद जी। उन्होंने परमपूज्य आध्यात्मिक चिन्तक आगमज्ञाता साहित्यकार वयोवृद्ध ज्ञानमूर्ति आचार्य प्रवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी विरचित समयसार की जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवृत्ति सहित किया गया हिन्दी अनुवाद को पढ़कर दर्शनार्थ पधारे थे और तत्त्वचर्चा करके उनकी धारणाएँ बदल गयीं और नसीराबाद में ही रुक गए और आचार्य गुरुवर की समाधि तक रुके रहे। वे प्रतिदिन गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज एवं नव-नवोन्मेषी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से घण्टों-घण्टों तत्त्वचर्चा करते थे। दोनों गुरुओं की साधना एवं चर्या से वे बड़े प्रभावित हुए और गुरुदेव की खूब वैयावृत्य करते थे। उनके साथ में आयीं ब्रह्मचारिणियाँ भी बहुत अधिक प्रभावित हुयीं और उन्होंने अपना जीवन ही गुरुचरणों में समर्पित कर दिया।''
इस तरह हे गुरुवर! आप क्वचित् कुतूहल से गहन अध्यात्म को हठी जिज्ञासुओं को भी अनुभूत करा देते थे। आप गुरु-शिष्य की चर्या में आगम की गाथायें और सूत्र चरितार्थ होते देख बड़े-बड़े नास्तिक भी आस्तिक बन जाते थे। धन्य हैं ऐसे ही गुरु-शिष्य को पाकर। श्रमण संस्कृति पंचम काल के अन्तिम समय तक निर्बाध प्रवर्तमान रहेगी। उनके पावन चरणों में नमन निवेदित करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य