स्वाध्याय - 67 वां स्वर्णिम संस्मरण
श्री धवलाजी ग्रंथ की वाचना चल रही थी। आचार्य महाराज श्री ने कहा- पंडित जगन्मोहन लाल जी कटनी वालों ने एक दिन मुझे बताया कि- एक कोई व्रद्ध महान ग्रंथ को पढ़ रहे थे तो मैंने पूँछ- समज में आ रहा है, जो भी आप पढ़ रहे है। वृद्ध ने कहा ,हाँ इतना समज में आ रहा है कि-हम पढ़ रहे है, हमे तो स्वाध्याय करना है बस। गुरुदेव ने आगे बताया कि- बात सच है, जो केवलज्ञान के द्वारा जाना गया है वह हम पूर्ण नही जान सकते इसलिए यह प्रभु की वाणी है। ऐसा श्रद्धान रखकर पढ़ते जाना चाहिए क्योंकि ये तो मंत्र जैसे है। आचार्यो के प्रत्येक शब्द मंत्र हुआ करते है।
मैंने मंगलाचरण किया, एक विद्वान वही बैठे थे। मैंने मंगलाचरण में णमो अरिहंताणं बोला- तो वे विद्वान बोले आपके मुख से ये मंत्र सुनने में भी आनंद आता है। आचार्य श्री ने बताया कि - मानसिक मंत्र तो और भी अधिक आनंद देता है क्योंकि, मन की एकाग्रता से वचन, काय में भी एकाग्रता आ जाती है। जब वीतरागी गुरु का दर्शन ही आनंददायी होता है और फिर जब उनके मुख से शब्द, मंत्र सुनने मिल जावे तो फिर कहना ही क्या। गुरुओं ने हमारे ऊपर महान उपकार किये है जो करुणा भाव से ग्रथों की रचना की। इसलिए हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम भी समय निकालकर शास्त्रों का स्वाध्याय अवश्य करे, क्योंकि स्वाध्याय ओर साधु संगति हमारे मन को धोने के लिए साबुन और पानी का काम करते है। वर्तमान समय मे विपरीतताओं में जीवन को सम्बल मात्र स्वाध्याय से ही प्राप्त हो सकता है
साधु संत कर्त शास्त्र का, सदा करो स्वाध्याय।
ध्येय,मोह का प्रलय हो, ख्याति लाभ व्यवसाय।।
21 नवम्बर 2002
अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
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