महाकारुणिक संत - 80 वां स्वर्णिम संस्मरण
आचार्य श्री जी के जीवन में बचपन से ही जीवों के प्रति करुणा भाव कूट - कूट भरा हुआ है।उनके जीवन की प्रत्येक क्रिया करुणा से ओत-प्रोत है, हर क्रिया में करुणा झलकती है। वे करूणा के भंडार है, करुणा की मूर्ति है। आचार्य भगवन के अंदर करुणा और दया को देखकर मन उनके प्रति श्रद्धा से भरकर प्रफुल्लित हो जाता है। 17 नवंबर 1972 (नैनागिर) की बात है- बारह वर्ष से धर्मशाला के निकट एक कुत्ता रहता था।उसने खाद्य पदार्थ समझकर के एक दिन अग्निगोलक अस्त्र (बम) खा लिया। उसका विस्फोट हो जाने से उसका मुख क्षत-विक्षत हो गया।
वह जल मंदिर में के द्वार पर बैठा रहता था। वंदना के लिए आई हुई ब्रह्मचारिणी बहनों ने उस की दुर्दशा को देख कर उसके कष्ट का निवारण करने के लिए णमोकार मंत्र का पाठ सुनाया। उसके प्रभाव से उसकी वेदना कुछ कम हो गई, जिससे वह पर्वत पर आचार्य महाराज के प्रवचन सुनने के लिए गया। उसकी दशा को देख करके गुरुदेव ने उसे संबोधन दिया- "तुम्हारा मरण का समय आ गया है, क्या व्रत की इच्छा करते हो ?" उस कुत्ते ने सिर हिलाकर के स्वीकृति दी। णमोकार मंत्र सुनकर के उसने आगे रखे भोजन पानी के परित्याग को स्वीकार कर लिया। धर्मशाला में उसके सामने अन्न-पान रख देने पर भी वह उसे देखता नहीं था। 19 नवंबर के दिन पंच परमेष्ठी के उच्चारण को सुनते हुए उसका देवलोक हो गया।
इस प्रकार उस कुत्ते ने आचार्य महाराज के द्वारा दिये हुए व्रत का पूर्ण रूप से पालन करते हुए, उनके सानिध्य में अपनी देह का समाधि मरण पूर्वक त्याग किया। इतना ही नहीं आचार्य महाराज ने अनेकों भव्य जीवों की सल्लेखना करा कर हमेशा-हमेशा के लिए भव-भ्रमण से मुक्ति का सोपान भी प्रदान किया है। और इस युग के समाधि सम्राट बनकर भव्य जीवों का कल्याण किया।।
अनासक्त महायोगी पुस्तक से साभार
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